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व्यापी की जाती थी। यह थी भारतीय संस्कृति की सामान्य स्थिति ।
गुरु-गृह-वास में अधिकतर ब्राह्मण विद्यार्थी ही रहते होंगे, थोड़े वैश्य और क्षत्रिय भी होते थे। कारीगर अपनी-अपनी कला सीखने गुरु के घर पर रहने नहीं जाते, किन्तु उसकी देखरेख में उसके कारखाने में काम करते थे ।
विद्यार्थियों के लिए खास सहूलियत अपने यहां थी। ऐलान होता तो भाषा में आवसय जैसा पारिवारिक शब्द नहीं आता । ( आवसथ यानी छात्र-गृह) ।
फिर अपने यहां अंग्रेजी राज्य आया, अंग्रेजी शिक्षा आई, उसके बाद ही अंग्रेज- विद्यार्थियों के होस्टेल का अनुकरण हुआ । लेकिन उसमें अधिकतर अपने बच्चों को पश्चिम के फैशन के अनुसार तैयार करना चाहनेवाले धनिक लोगों की ही यह प्रवृत्ति मानी जाती थी।
गुजरात की बात अलग थी। बहुत से गुजराती लोग व्यापारार्थ अफ्रीका में, या किसी और देश में, जाकर रहते थे। वहां अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए सहूलियत न थी, और घर के सब लोगों को परदेश ले
की सहूलियत भी नहीं थी, इसलिए अपने बच्चों को स्वदेश में ही पढ़ने के लिए रखते थे । फलतः परदेश जाकर व्यापार करनेवालों के बच्चों के लिए गुजरात में जगह-जगह पर छात्रालय चलने लगे।
जातिवार छात्रालय शुरू हुए, यह गुजरात की विशेषता थी । (विशेषता तो सारे भारत की है, गुजरात ने उसका व्यवस्थित संगठन किया । ) अपनी जाति के सब लड़कों को साथ रहकर पढ़ने की सहूलियत मिले, ऐसी व्यवस्था जाति मानस को अत्यन्त जरूरी लगती है, यह एक बात है और दूसरी यह कि सार्वजनिक जीवन के लिए हम पैसा खर्च करें तो उसका लाभ अपनी जाति को ही मिलना चाहिए, इस तरह का आग्रह है, यह है दूसरा तत्व । इस तरह गुजरात में 'कौमी छात्रालय' शुरू हो गए, जो आज भी चलते हैं। गुजरात में यह प्रकार स्वाभाविक है और सुविधाजनक है। लेकिन समस्त देश के सांस्कृतिक विकास के लिए यह व्यवस्था जोखिम - कारक ही नहीं, विनाशकारक भी है। गुजरात के लोगों के जीवन में जाति-व्यवस्था ने ऐसी जड़ पकड़ ली है कि जातिवार कौमी छात्रालय स्थापित करने में राष्ट्रीय संस्कृति को हम नुकसान पहुंचाते हैं, ऐसी शंका भी किसी के मन में नहीं आती।
मनुष्य को जो बात ठीक लगी वह सभी को ठीक लगेगी; इस विश्वास से ही समाज-व्यवस्था गढ़ी जाती है ।
विदेश में बसनेवाले गुजराती मां-बाप ने गुजरात में जाति के अनुसार कौमी छात्रालयों की स्थापना की। इस व्यवस्था को तोड़ने की जरूरत है, यह बात लोगों को रचनात्मक ढंग से समझाने की जरूरत देखकर हमने छात्रालय परिषद् का प्रारम्भ किया था। उसके द्वारा सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति अमल में लाने का हमारा लक्ष्य था ।
स्वराज्य के आन्दोलन में हम सब फंस गए। दूसरे भी महत्व के काम आ गए इसलिए छात्रालय सम्मेलन की प्रवृत्ति आगे नहीं बढ़ी, किन्तु उसके पीछे का हेतु धार्मिक सुधार का सामाजिक न्याय का और सांस्कृतिक विकास का होने के कारण उसका उल्लेख यहां जरूरी था।
छात्रालय में ब्राह्मण से लेकर हरिजन तक सब जाति के हिन्दू विद्यार्थियों के साथ ईसाई, मुसलमान और पारसी विद्यार्थी भी पास रहते थे। आहार के नियमों के बारे में बीच का रास्ता अमल में आता । और अन्तरजातीय तथा अन्तरधार्मिक विवाह होने की अनुकूलता पैदा हो, ऐसी भी अपेक्षा रखी थी । राष्ट्रीयता का प्रचार केवल राजद्वारी क्षेत्र में हो, यह बस नहीं। ऐसा प्रचार टिकने वाला भी नहीं; ऐसे विश्वास से हम अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति चलाते थे। गांधीजी के आश्रम के जैसे 'उदार किन्तु संयमी जीवन की संस्था चलावें,
१९२ / समन्वय के साधक