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________________ भक्ति जागी थी, उसका सम्पूर्ण स्वरूप विद्यार्थियों को पूरे उत्साह से समझाता था। परिणामस्वरूप विद्यार्थी चरखा चलाने लगे और पूनियां बनाने के लिए धुनाई की कला सीखने लगे । कताई धुनाई सीखने और सिखाने के लिए मैंने दो-तीन अच्छे विद्यार्थी तैयार किये थे। बीमार होकर जब मैं पूना के नजदीक चिंचवड के स्वावलम्बन राष्ट्रीय विद्यालय में जाकर रहा था, तब वहीं से दो-तीन विद्यार्थियों को खादी का महत्त्व समझाकर उनको साबरमती आश्रम भेज दिया था। उन लड़कों के पीछे मैंने अच्छी मेहनत की थी इसलिए उन्हीं को विद्यापीठ में कताई धुनाई सिखाने के लिए रखा । उसमें से एक प्रकरण खड़ा हुआ । महाराष्ट्रियों में स्वार्थी प्रान्तीयता नहीं है, किन्तु अभिमान भरपूर है। जहां जाते हैं, वहां महाराष्ट्रपन की चर्चा करते हैं । चिचवड़ के वे विद्यार्थी महाराष्ट्र के हैं उसका तो ख्याल भी मुझे रहा नहीं था । इस कला प्रवीण हुए हैं, ठीक प्रकार से सिखा सकेंगे, इतना ही सोचकर मैंने उनको विद्यापीठ में लिया था । थोड़े ही दिनों में विद्यापीठ के विद्यार्थियों में महाराष्ट्रीय गुजराती की चर्चा शुरू हो गई। "काका महाराष्ट्रीय हैं, इसलिए दो-तीन महाराष्ट्रियों को लाकर रखा है।" ऐसे उद्गार सुने तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मेरे बारे में जो बात गुजरात के मन में कभी भी आई नहीं थी, आने की सम्भावना भी नहीं थी, वैसी बात सुनकर मैं तो सहम ही गया। मैंने पूज्य बापूजी को यह बात सुनाई। उन्होंने कहा, " गुजरात में या कहीं भी किसी के मन में आपके बारे में शंका उठ ही नहीं सकती। किन्तु आप जिन महाराष्ट्रियों को ले आए, उनको लाने से पहले उनके स्वभाव का विचार करना चाहिए था। आपके आसपास महाराष्ट्रीय एकत्र न हो जायं, यही इस देश के लिए सुरक्षित नीति होगी। आपमें प्रान्तीयता या अभिमान नहीं है । किन्तु सारे देश का यह दोष तो दूर नहीं हो गया है ।" इतना कहते बापूजी को एक अच्छा उदाहरण याद आया । उन्होंने कहा, "आप जानते ही हैं कि बम्बई का दैनिक अखबार 'बोम्बे क्रॉनिकल' कांग्रेस का ही है । उसके मुख्य सम्पादक मि० ब्र ेल्वी अंग्रेजी दैनिक बढ़िया चलाते हैं । उन्होंने अपने आसपास एक भी मुसलमान को रखा नहीं है । अपने देश में यह सब बहुत सम्भालना पड़ता है ।" । बापूजी की बात मुझे पूरी जंच गई। इतनी सावधानी मुझे सिखानी पड़ी, उसकी लज्जा से मैं पानीपानी हो गया। मैंने तुरन्त जरूरी कार्यवाही कर ली प्रान्तीयता का सवाल जरा-सा उठा था, फैला नहीं था। किसी के मन में मेरे बारे में कुछ शक नहीं था। मैंने जो करना था सो चुपचाप कर लिया और सारा वातावरण साफ हो गया । मेरे लिए जीवन का यह एक कीमती अनुभव था । २५: विकास का मौका और क्रान्ति की झड़प मेरे जीवन के पहलू चाहे जितने हों, मुख्य तो मैं शिक्षक हूं। मैं गांव में रहूं, कोई विद्यालय चलाऊं या किसी विद्यापीठ की स्थापना करके उसका व्यापक संगठन करूं, उसमें मेरा पूरा हृदय और पूरा जीवन उंडेले बिना मुझसे रहा नहीं जाता। अखवार चलाऊं तो भी दृष्टि शिक्षण की ही रहेगी। सभा सम्मेलन में भाग लूं तो उसमें भी काम तो शिक्षक का ही करूंगा जब जेल गया तब वहां जिन कैदियों का सहवास मिला उन सब के साथ मानो मैं शिक्षण की संस्था चलाता है, ऐसा ही सम्बन्ध हो गया। सभा में भाषण दूं रवानगी पत्र १९० | समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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