________________
"गांधीजी ने विद्यापीठ का भार मेरे सिर पर रखा है, इसलिए विद्यापीठ के आदर्श, इस संस्था की खूबियां और संस्था के द्वारा चलनेवाली प्रवृत्तियों के बारे में आप जानना चाहे तब चाहे बार-बार आप मुझे बुलाइये, मैं खुशी से आऊंगा, मुझमें कोई हठ या बड़प्पन नहीं है।
"विद्यापीठ के बारे में आपने कुछ प्रतिकूल सुना हो, विद्यापीठ की प्रवृत्ति के बारे में कोई असंतोष हो तो मेरी ओर से जवाब मांगने का आपको पूरा हक है। आप कहेंगे तब मैं आपके पास आऊंगा, किन्तु केवल पैसे मांगने के लिए मैं आपके पास आनेवाला नहीं हूं, क्योंकि यह संस्था मेरी नहीं है । वह सारे गुजरात की है। गांधीजी ने वह स्थापित की है। उसके कर्णधार स्वयं गांधीजी हैं। उनकी चलाई हुई इस संस्था की प्रतिष्ठा कम तो नहीं है। ऐसी संस्था चलाने के लिए आपको अपने आप मेरे पास पैसे भेज देने चाहिए। संस्था का साल-भर का खर्च पैंसठ या सत्तर हजार का है। यदि आपको विश्वास हो कि इतने पैसों में हम अधिक-से-अधिक सेवा देते हैं, तो इतने पैसे, बिना मांगे मुझे भेजते जाइये ।
"यदि आप देखें कि इससे कम पैसों में अन्य कोई संस्था हमसे अच्छी सेवा दे रही है तो अपने पैसे आप अवश्य उस संस्था को दें। किन्तु यदि आपको पूरा विश्वास हो जाय कि कम खर्च में अधिक सेवा देनेवाली यह संस्था है और वह सेवा संतोषकारक है तो आप हमको पैसे दें। मैं मांगने को नहीं आऊंगा । आप ही पैसे भेजकर बाकायदा रसीद लें। हमारे काम का विवरण हम आपको नियमित भेजते रहेंगे ।"
इस नीति का प्रभाव अच्छा हुआ और जबतक विद्यापीठ मेरे हाथ में थी, तबतक मुझे कभी पैसों की चिंता नहीं करनी पड़ी।
एक दिन एक भाई मिलने आये। उन्होंने मुझे सौ-दो सौ रुपये दिये होंगे। मैंने कहा, "संस्था चला रहा हूं, इसलिए मिले सो पैसे लेने को बंधा हुआ हूं, किन्तु आपका मुझे परिचय है, इसलिए कहता हूं कि यह रकम आपको, न मुझे, और न तो संस्था को, शोभा देती है । "
दूसरी बार चंदे के लिए मैंने अपील की तो वही सज्जन दुबारा आये। उस समय उनकी सहायता चार आंकड़ों की थी।
२४ : प्रान्तीयता
प्रान्तीयता का स्मरण हो जाय, ऐसा एक प्रसंग अनायास बन गया ।
गुजरात विद्यापीठ की पुनर्रचना जब बापूजी ने की, तब आदर्श यह रखा था कि जो शहरी विद्यार्थी विद्यापीठ में आयंगे, उनको केवल अच्छी विद्या और संस्कारिता देकर उत्तम नागरिक बनावे, इतना ही पर्याप्त नहीं है, उनको उत्तम स्वराज्य-सेवक बनाकर गांव की सेवा के लिए जगह-जगह भेज देना है, इस आदर्श को कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने विद्यापीठ का कार्यभार मुझे सौंपा, तब की यह बात है । ग्रामोद्योग का महत्त्व विद्यापीठ ने मान्य किया था। बाकी के सब उद्योग आकाश के ग्रह जैसे थे, और खादी को उन ग्रहों के बीच सूर्य समझा जाय। इतना आग्रह बादी के लिए देश के सामने रखते हुए भी अपने घर की विद्यापीठ में खादी की स्वीकृति नहीं हुई थी । विद्यार्थी खादी पहनते थे, क्योंकि वह विद्यापीठ की वर्दी थी। मैं जानता था कि केवल कड़े नियम करने से और उन नियमों को सख्ती से लागू करने से बादी भक्ति बढ़नेवाली नहीं है। मैं अपनी सारी शक्ति अपने प्रार्थना प्रवचनों में बहा देता था, और नयी पीढ़ी के युवा हृदयों में जो स्वराज्य
बढ़ते कदम जीवन-यात्रा | १८२