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वही सच्चा राष्ट्रीय शिक्षण" ऐसा माननेवाला एक पक्ष इस विशाल प्रवृत्ति के अन्दर अपना वातावरण जमाने की कोशिश कर रहा था। इस पक्ष में से ही मैंने अपना सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ किया था। इस लिए प्रथम बेलगांव में और उसके बाद बड़ौदा में राष्ट्रीय शिक्षा की संस्था में दाखिल हुआ। वहां मेरे विचार आजमाने का और उन्हें परिपक्व करने का प्रयोग मैंने किया। उसमें क्रान्तिकारी विचार के शिक्षकों को ही लेना और विद्यार्थियों में उस तरह का तेजस्वी वायुमण्डल उत्पन्न करना और फिर भी अंग्रेजोंकी दमननीति से बच जाना, यह हमारी कार्य-पद्धति थी ।
इसके अनुसंधान में हम शिक्षक सार्वजनिक जीवन में अच्छा भाग लेते थे । 'पुराने धार्मिक, सांस्कृतिक और नये राजनैतिक त्योहार मनाने, यह भी हमारी राष्ट्रीय शिक्षा का एक महत्व का अंग था।
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इसी विचार से हम देश में कौन-कौन कहां काम करते हैं, उसकी तलाश रखते हम एक-दूसरे को मिलते भी रहते थे। जैसे हम एक-दूसरे को ढूंढते रहते थे, उसी तरह अंग्रेजी सरकार भी हम सबको पहचान कर हम पर कम-ज्यादा दबाव डालने की कोशिश करती थी। यह वातावरण समाज के लिए बहुत प्रेरणादायी साबित हुआ । हम राष्ट्र-सेवकों के लिए तो त्यागमय, सेवामय, सादा और नम्र तथापि तेजस्वी जीवन अच्छी प्रेरणा और दीक्षा देने वाला था ही। हमारा आपस का भाईचारा चरित्र की दृष्टि से उन्नत और आत्मीयता की दृष्टि से अत्यन्त सन्तोषकारक था।
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जगह-जगह पर अंग्रेज सरकार सफल हो रही है, हमारी एक भी संस्था टिक नहीं रही है। ऐसा अनुभव हुआ । अन्तिम शक्ति अध्यात्म में ही मिलनेवाली है, इस विश्वास से पश्चिम भारत को हमेशा के लिए छोड़कर मैं हिमालय की यात्रा को गया । वहां कोई एक स्नेही राम की उपासना करे, दूसरा कोई वेदान्त में से प्रेरणा प्राप्त करे; अध्यात्म-शक्ति की उपासना करने के लिए कई लोग देवी की उपासना करते । आसन प्राणायाम, ध्यान और समाधिवाली योगिक साधना में भी कितने लोग संलग्न हुए, किन्तु सबके मन में एक बात समान थी कि अध्यात्म शक्ति विकसित करके जनता में जागृति लानी है।" सब धर्मों में आज चलने वाली स्पर्धा को तोड़कर उसमें सहयोग का वातावरण लाकर गांवों में भी चल सके, ऐसे उद्योगों को पुन: जीवित करके राष्ट्र का उत्थान करना चाहिए। पहले मौके से देश को स्वतंत्र करने की उत्कट अभिलाषा सब में समान भाव से काम करती थी। अध्यात्म का मोक्ष और भारतीय स्वतंत्रतारूपी राजनैतिक मोक्ष- दोनों का समन्वय यही थी हमारी सर्वोपरि प्रेरणा इसीलिए 'सा विद्या या विमुक्तये, यही हमारा जीवन-सूत्र बन गया। आगे की बात का यहां जरा-सा उल्लेख कर दूं गुजरात विद्यापीठ की जब हमने स्थापना की तब साथियों ने विद्यापीठ के लिए मेरे पास से ध्यानमंत्र 'मोटो' मांगा। मैंने तुरन्त उनको सा विद्या या विमुक्तये" दिया और उसके लिए एक पुराना सुभाषित ढूंढकर उनको समझा दिया। महात्माजी को भी यह मोटो बहुत पसन्द आया । आज अनेक संस्थाएं इसी मोटो को स्वीकार करके अपना काम चला रही हैं ।
मैं हिमालय गया तब मेरे मन में ऐसा कोई संकल्प न था कि वापस आकर सार्वजनिक जीवन के काम में मुझे पड़ना है । केवल अध्यात्म साधना करनी और भारत सेवा से लिए परमात्मा जो प्रेरणा दे उसको शेष जीवन अपर्ण करना इतना ही संकल्प था ।
हिमालय में एक स्थान पर बैठने के बदले अपनी पवित्र नदियों के उद्गम स्थान और पहाड़ों के शिखर देखने, यात्रा करते-करते उत्कट धार्मिक पुरुषों के दर्शन करने और साधना के साथ चिन्तन चलाते रहना, यही हमने ज्यादा पसन्द किया। गंगोत्री, जमनोत्री, केदार, बद्री- ये चार स्थान तो अखिल भारत के यात्रियों का मानो पीहर थे। वहां की यात्रा पूरी करके कश्मीर से लेकर नेपाल तक हिमालय के सब प्रदेशों को 'पदाक्रान्त किया और फिर गंगा के किनारे बैठकर ध्यान लगाया।
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा / १८३