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२३:: गुजरात विद्यापीठ की स्थापना और पुनर्रचना अपने जीवन में जिन महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों में मैंने भाग लिया है, उनमें मेरे मन में सबसे अधिक महत्व की प्रवृत्ति गुजरात विद्यापीठ की थी।
अंग्रेज राज्य के साथ और उनकी पश्चिमी शिक्षा के साथ असहयोग करने की इच्छा जिनको नहीं थी, उनमें भी ऐसे काफी लोग थे, जिनको अंग्रेज सरकार की चलाये हुए और उनके विश्वविद्यालयों में चलने वाली शिक्षा के बारे में असन्तोष था। और अपने देश की आवश्यकता तथा संस्कृति के प्रति वफादार रहकर सारे देश में राष्ट्रीय शिक्षण का एक स्वतन्त्र तन्त्र खड़ा करने की उनकी इच्छा थी।
उनमें भी आर्यसमाज का विचार था कि वैदिक धर्म और वेदकाल की संस्कृति को फिर से जागृत करके उसके अनुकूल शिक्षातन्त्र खड़ा करना चाहिए। वैसे प्रयत्न भी उन्होंने किये। उत्तर भारत में ऐसे लोगों की पुरानी संस्कृति का ज्यादा महत्व देने वाला गुरुकुल पक्ष था और इस जमाने की अंग्रेजी शिक्षा का महत्व पहचानने वाला डी० ए० वी० (दयानन्द एंग्लो वैदिक) कॉलेज का पक्ष भी था। ऐसे दो पक्ष हो गए थे। मुस्लिमों ने इस्लाम और उसकी संस्कृति को महत्व देनेवाली नयी शिक्षण पद्धति चलाने के लिए जो संस्थाएं खड़ी की उसका केन्द्र था अलीगढ़ युनिवर्सिटी।
इसी तरह हिन्दू संस्कृति को केन्द्र में रखकर सारा शिक्षा-तन्त्र देशव्यापी करने के हेतु से पंडित मालवीयजी जैसों ने हिन्दू-विश्वविद्यालय की स्थापना की। पं० मालवीयजी की उस संस्था को अखिल भारतीय रूप देने की उत्कट इच्छा थी, किन्तु अंग्रेज सरकार ने उस विश्वविद्यालय को स्थानिक बनाने की शर्त पर ही खड़ा होने दिया था। यह था 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय'। यह सारी प्रवृत्ति एक-एक धर्म समाज की होने के कारण उनकी राष्ट्रीयता के बारे में लोग शंका व्यक्त करते थे।
भारत के सार्वजनिक जीवन में और सरकारी तंत्र में भी बंगाली लोगों का महत्व बहुत बड़ा होने से यह अंग्रेजी राज्य के लिए जोखिमकारक है, ऐसा मानकर भारत की अंग्रेज सरकार ने बंगाल के दो भाग करना तय किया। इससे समस्त बंगाल की जनता बिगड़ उठी। उन्होंने बंग-भंग के खिलाफ जबरदस्त आन्दोलन चलाया। उसी समय देश भर में राष्ट्रीयता का अच्छा जोश था। इसलिए महाराष्ट्र, मद्रास इत्यादि प्रदेश के लोगों ने बंगालियों को पूरे दिल से प्रोत्साहन दिया। और सारे देश में स्वराज्य के आन्दोलन द्वारा असाधारण प्राणवान प्रजा-जागति देखने को मिली।
उस स्वराज्य-आन्दोलन में देशी उद्योगों को प्रोत्साहन देना, देश में आने वाले विदेशी माल का, खासकर विलायती कपड़े का, बहिष्कार करना देश की सारी शिक्षा अपने हाथ में रहे, इस दृष्टि से सरकार से स्वतन्त्र राष्ट्रीय शिक्षण चलाना, इस किस्म के तीन-चार महत्त्व के मुद्दे लेकर सारे देश में खूब प्रचार हुआ। लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से पुणे-बम्बई के बीच तलेगांव में समर्थ-विद्यालय की स्थापना हुई । सुबोधचन्द्र मलिक, विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष जैसे बंगाली नेताओं ने बंगाल नेशनल 'कौंसिल ऑफ एजुकेशन' की स्थापना की। इस तरह शुद्ध राष्ट्रीय दृष्टि से और किसी एक धर्म को आगे न करके सब धर्मों का आदर रखकर भारतीय संस्कृति को पोषक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा के अनेक प्रयोग शुरू हुए।
मैसूर राज्य में भी ऐसा ही एक प्रयोग शुरू हुआ था।
पंजाब में सिख लोगों ने ऐसे ही प्रयोग चलाये थे। उन सब का इतिहास यहां देना नहीं हैं । केवल उस समय का वायुमण्डल समझाने का ही उद्देश्य है । "केवल कांग्रेस को ही नहीं, किन्तु शुद्ध स्वातन्त्र्य प्राप्त करने की दृष्टि से अंग्रेजी राज्य तोड़ने के लिए सारे राष्ट्र को तैयार करना चाहिए। ऐसी तैयारी करनेवाला शिक्षण
१८२ / समन्वय के साधक