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________________ न जाने कहां से पैसे ले आए ! मुझे नर्मदा के किनारे ले गए। वहां से पूना के पास नौ-दस मील पर चिंचवर्ड की राष्ट्रीयशाला में मेरी रहने की सारी व्यवस्था की। उसके बाद पूना के पास के इतिहास-प्रसिद्ध पहाड़ी किले सिंहगढ़ में मुझे रखा। वहां से समुद्र किनारे बोर्डी में रहने की व्यवस्था की। चिंचवर्ड में खेड़ा जिले के श्यामलभाई मेरी सेवा में थे। सिंहगढ़ में और बोर्डी में पूज्य गंगाबा ने मेरी बेहद सेवा की। बीच-बीच में स्वामी आते-जाते रहते थे। सारी व्यवस्था उत्तम करते थे। मैं नहीं मानता कि अत्यन्त नजदीक के कोई भी सगे-संबंधी भी स्वामी के जितनी चिन्ता और मेहनत कर सकते। मेरे मन में एक ही शंका उठती रही, "क्या इतनी प्रेम-भक्ति और सेवा का पात्र मैं हूं?" उन दिनों पूज्य बापूजी कितने प्रेम से और चिन्ता से मुझे पत्र लिखते थे। स्वामी की सेवा से वे भी प्रसन्न होकर कहते थे, "कहां रहना, क्या इलाज करना इत्यादि सभी बातों में स्वामी आनन्द का ही निर्णय हमें मान्य करना चाहिए।" मेरी तबीयत बहुत सुधरी, किन्तु मैं पूरा रोग-मुक्त नहीं हुआ। स्वामी मुझे अहमदाबाद ले आए और आराम के लिए आश्रमशाला में ही मुझे रखा और क्षयरोग के निष्णात डाक्टर तलवलकर के इन्जेक्शन लेना शुरू कर दिया। प्राणिज वस्तु में से बने हुए इन्जंक्शन लेने का मुझे सख्त विरोध था। मैंने कहा, "रासायनिक द्रव्य के इन्जेक्शन लेने में मुझे कोई हर्ज नहीं है।" बापूजी ने भी सम्मति दी। मैंने दो-चार नहीं खासे २२ इन्जंक्शन लिये। उसका असर अच्छा हुआ। मैं क्षयरोग-मुक्त हुआ। उस अर्से में चि. सतीश और काकी (मेरी पत्नी) मेरे साथ रहे थे। मैं स्वस्थ हुआ, काम करने लगा। बाद में मालूम हुआ कि उन इन्जैक्शनों में प्राणिज वस्तुओं का स्पर्श तो होता ही है । इन्जेक्शन ले लिये, स्वस्थ हो गया, बाद में सच्ची बात का पता चला। अब क्या कर सकता था? नसीब में होना था, सो हो गया, ऐसा करके शान्त हो गया। संतोष इतना ही कि क्षयरोग से मरना न पड़ा । उसके बाद मैंने डाक्टर दिनशा मेहता के पास से नैसर्गिक उपचार का लाभ भी लिया। तबीयत कैसे सम्भालनी, उसका ज्ञान प्राप्त किया और विशेष तो शरीर के ऊपर मन का असर कैसे होता है, उसकी जानकारी होने से मन के ऊपर काबू रखकर सुख-दुख से अलिप्त रहने की कला विकसित की। 'मनुष्य को चिन्ता करने के बदले चिन्तन करना चाहिए, यह मेरा जीवन-सून बन गया। उसके बाद मैंने अपना स्वास्थ्य अच्छी तरह सम्भाला है। मुझे कबूल करना चाहिए कि हिमालय हो या समुद्र का किनारा, रण हो या महा कांतार, कुदरत के साथ मैं एक हृदय हो सकता हूं और कुदरत के पास से आध्यात्मिक प्रेरणा और शारीरिक प्राण मुझे मिलते हैं। इसलिए कुदरत के प्रति-कुदरत के आधार पर जी लिए कुदरत के प्रति-कुदरत के आधार पर जीनेवाले मनुष्य की हैसियत से—मेरी कृतज्ञता मुझे व्यक्त करनी ही चाहिए। १७६ / समन्वय के साधक ..
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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