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________________ १६:: 'मैं जाने को तैयार नहीं सन् १९२८ के बारडोली सत्याग्रह के दिन थे। सरदार वल्लभभाई ने लोगों को बड़ी अच्छी तरह तैयार किया था। सरकार ने भूमिकर बढ़ाया, वह गैरबाजिब है, यह थी सत्याग्रह की भूमिका । सत्याग्रह शुरू हुआ तब उसमें काम करने के लिए विद्यापीठ के थोड़े विद्यार्थियों को पसन्द कर मैंने उन्हें बारडोली भेज दिया था। बाकी विद्यापीठ का काम हमेशा की तरह ठीक तरह से चल रहा था। एक दिन किसीने आकर मुझसे कहा, "वल्लभभाई आपसे नाराज हैं। कहते हैं-हम यहां जान की बाजी लगाये बैठे हैं, और काका को तो अपनी विद्यापीठ की ही पड़ी है।" मैंने पूरा विचार करके वल्लभभाई को जवाब भेजा, "वल्लभभाई, देश के लिए बारडोली की लड़ाई अत्यन्त महत्त्व की है, यह मैं जानता हूं। देश-भर में गमगीनी फैल गई थी। वह इस लड़ाई से दूर होने लगी है। इसीलिए तो इसमें मैंने चन्द विद्यार्थियों को भेजा है। विद्यापीठ बन्द करके इस सत्याग्रह में कूद पड़ने की आवश्यकता मुझे नहीं लगती। जिस दिन पूज्य बापूजी अथवा आप स्वराज्य के लिए आखिरी लड़ाई छेड़ेंगे, उस दिन सारी विद्यापीठ बन्द करके हम सब अध्यापक और विद्यार्थी अवश्य उसमें कूद पड़ेंगे; किन्तु आज वैसी स्थिति नहीं है। बारडोली का आन्दोलन चाहे उतना महत्त्व का हो, स्थानिक ही है। अमुक प्रदेश के किसानों पर होनेवाले अन्याय के विरुद्ध यह आन्दोलन है। उसकी खातिर विद्यापीठ जैसी संस्था बन्द नहीं करनी चाहिए। किन्तु मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि विद्यार्थी और अध्यापकों में से दस लोग बारडोली सत्याग्रह के लिए देने का तय किया है। इन दस में से जितने लोगों को सरकार जेल में बन्द करेगी, उतने नये सत्याग्रही आपको भेजता रहूंगा। किन्तु विद्यापीठ बन्द नहीं होगी। हमारे वर्ग बराबर चलेंगे और रोज के विषय सिखाये जाएंगे। ___“मैं मानता हूं कि विद्यापीठ के इतने सहयोग से आपको सन्तोष होगा। और कुछ कहना हो तो मुझे सन्देशा भेज दीजिए। मैं स्वयं आपसे मिलने आऊंगा।" मैं मानता हूं कि मेरे इस जवाब से वल्लभभाई को संतोष हुआ होगा। उनकी ओर से कोई सन्देशा नहीं आया, न असंतोष के वचन सुनने पड़े। मैंने अपने वचन का अच्छी तरह पालन किया। इस सत्याग्रह के बारे में एक दूसरी बात भी महत्त्व की है। बारडोली का आन्दोलन गुजरात के किसानों का था और सरदार वल्लभभाई थे किसानों के सरदार। इस आन्दोलन में वे पूज्य बापूजी को खींचना नहीं चाहते थे। बापूजी की नैतिक मदद तो है ही, किन्तु गुजरात की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, ऐसा उन्हें विश्वास था। हम सबको उनका यह रुख पसन्द था। बापूजी सारे आन्दोलन का काम ध्यानपूर्वक देखते थे, लेकिन उसमें हस्तक्षेप करने का उनका कोई इरादा नहीं था। किन्तु इस आन्दोलन के दरमियान अंग्रेज सरकार की चालाकी देखकर बापूजी को चिन्ता हुई। चतुर सरकार सरदार को मुश्किल में डालेगी, यह जोखिम बापू कैसे सहन कर सकते थे। उन्होंने सरदार को एकदम गुप्त सन्देशा भेजा, “वल्लभभाई, प्रसंग बड़ा कठिन है । आप खुल्लमखुल्ला बारडोली आने का आमन्त्रण मुझे भेजिये । मेरे वहां जाने से ही सरकार समझ जायगी।" वल्लभभाई समझ गए। तुरन्त बापूजी को उन्होंने जाहिरा आमंत्रण दिया। बापूजी तत्काल बारडोली पहंचे। सरकार ने भी देख लिया कि अब इस बनिए-सेनापति से काम पड़नेवाला है। सरकार ने फौरन अपना पैतरा बदला। बारडोली आन्दोलन का इतिहास छपा हुआ है, और उस समय की बहुत-सी बातें मुझे याद नहीं, बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १७७
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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