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राष्ट्र-भेद भी मन में न रखते हुये, मानवता मन में रखकर चलूंगा और ये सब होते हुए शंकातीत: मनुष्य को जो अधिकार मिलने चाहिए, उसकी कोई भी लालसा नहीं रखूंगा और लोगों को शंका का कोई कारण ही न रहे.
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इतनी सावधानी आज से जीवन भर रखूंगा ।" यह निश्चय किया। उस दिन रात भर नींद नही आयी । गहरा चिन्तन चला और यकायक स्मरण हुआ कि शान्तिनिकेतन में प्रवेश मांगते समय मैंने गुरुदेव को लिखा था, "आपकी संस्था के लिए किसी तरह बाधा नहीं बनूंगा । इतना आश्वासन आपको देता हूं।” आज भी गुरुदेव के मन में कभी नहीं आयेगा कि दिया हुआ विश्वास मैने तोड़ा है, फिर भी यदि शान्तिनिकेतन का एक भी सेवक चिन्तामन शास्त्री के द्वारा सन्देशा भेजता है, तब मुझे समझ लेना चाहिए कि दिये हुये वचन का मैंने पूर्ण अर्थ में पालन नहीं किया ।
उसके बाद गांधीजी के आमंत्रण पर मैं उनके आश्रम में शामिल हुआ। उनके असंख्य कामों का जिम्मा उठा लिया और यथाशक्ति कर दिखाया। मेरी कल्पना में भी न आ सके, इतनी आत्मीयता से पूरे हृदय से, मुझे अपनाया --- केवल आश्रमवाले या विद्यापीठवाले या गांधीवाले ही नहीं, किन्तु समस्त गुजरातियों ने मुझे पूरे हृदय से अपनाया है। अपने ही समाज का आदमी हूं। इसी तरह से गुजरातियों के गुण-दोष की चर्चा मेरे साथ की।
उनकी आत्मीयता और इतना व्यापक और अकृत्रिम प्रेम प्राप्त करके मैंने धन्यता का अनुभव किया है; लेकिन शान्तिनिकेतन में उस दिन मैंने जो संकल्प किया था कि लोगों की आत्मीयता पर खिचाव नहीं आने दूंगा, और किसी भी अधिकार के स्थान को स्वीकार नहीं करूंगा, पूर्ण आत्मविश्वास से, किन्तु सब तरह से सचेत रहकर सेवा ही करता रहूंगा इस संकल्प को भुलाने नहीं दिया। एक ही समय मेरी पूरी कसौटी हुयी ।
पूज्य बाबूजी ने मुझे गुजरात विद्यापीठ की जिम्मेदारी लेने की सूचना की और कृपालानी को मेरठ वापस भेजा। उस समय, यानी जब विद्यापीठ की पुनर्रचना हुई, एक अखिल गुजरात की संस्था की जिम्मेदारी को मैं स्वीकार करूं या न करूं, यह शंका मेरे मन में आयी । आश्रम में या विद्यापीठ में या अन्य किसी जगह प्रथम स्थान लेने से मैंने हमेशा इन्कार किया था। पूज्य बापूजी कोई भी काम सौंपते तो तुरन्त श्री किशोरी लालभाई, महादेवभाई अथवा नरहरिभाई जैसों को साथ रख, अधिकारों को मैं बांट देता था । इतनी सावधानी रखते हुए भी जब विद्यापीठ की पुनर्रचना की गयी तो जिम्मेदारी मेरे ऊपर आयी । तब मैंने नरहरिभाई से कहा, "नरहरिभाई, हम दोनों के बीच कोई भेद नहीं। हम एकराग होकर काम करते आये हैं; तब विद्यापीठ के कुलनायक आप ही क्यों नहीं बनते। मेरी पूर्ण शक्ति आप ही के हाथ होंगी, आप कहोगे, उस स्थान को मैं स्वीकार करूंगा; किन्तु कुलनायक आप ही रहिये ।"
मेरी भावना नरहरिभाई समझ गये। उन्होंने कहा, "आपके संतोष की खातिर में आपकी सूचना मान जाता; किन्तु अपनी मर्यादा भी मुझे समझनी चाहिये। मैं यदि कुलनायक बनूं तो मुझे कदम-कदम पर आपको पूछ-पूछकर ही काम करना पड़ेगा। मैं नाममात्र का कुलनायक बनूं और हर समय सलाह या निर्णय के लिए आपके पास दौड़, यह स्थिति हो जाएगी और यह मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लगेगा। जो वस्तुस्थिति है, उसको स्वीकार करके चलें। कुलनायक आप ही बनें। मैं रोज आपसे मिलूंगा और आपका सब काम आपको संतोष हो, इस तरह करूंगा । आप दोगे वह सब अधिकार भोगूंगा। लेकिन कुलनायक का पद तो आपको ही लेना होगा।"
लाचार होकर मैने स्वीकार कर लिया। आगे मैंने अनुभव किया कि मेरी बात यदि नरहरिभाई मान जाते तो सरदार वल्लभभाई के लिए वह विशेष अनुकूल रहता ।
बढ़ते कदम जीवन-यात्रा / १५३