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________________ किन्तु अवसर बीतने पर 'ऐसा होता' और 'वैसा होता' ऐसा विचार करना व्यर्थ है। जो होना था, सो हो गया, और कुछ हो भी नहीं सकता था. ऐसा माने बिना चारा नहीं। १४:: मेरा आश्रम-प्रवेश १० अप्रैल १९१७ के दिन चम्पारण जाते हुए रास्ते में बड़ौदा स्टेशन पर पूज्य बापूजी मुझे मिले और बोले, "अभी-अभी मैंने आश्रम खोला है। इसलिए मुझे सारा समय आश्रम को देना चाहिए था, किन्तु सेवाकार्य लिए बाहर से निमंत्रण आते हैं । उनको मना कैसे करूं! इसलिए मैं चम्पारण जा रहा है। आप अनुभवी हैं। के शान्तिनिकेतन में आश्रमवासियों के साथ आप ठीक-ठीक मिल-जुल गए, इसलिए आप पूरे घर के ही हैं। आप यदि आश्रम जाकर रहें तो मैं निश्चिन्त रहूंगा।" मैं मान गया और आश्रम का हो गया और सब कामों में रस लेने लगा। खासकर शौचालय की और उसके आसपास की सफाई करने में, और रसोई करने में मैं परा सहयोग देता। परोसने में और बर्तन मांजने में औरों से मेरा उत्साह कुछ ज्यादा ही रहा होगा। पढाने में संस्कृत सिखाने का काम मेरे हिस्से में आया था। देवदास रामदास उसमें विशेष रस लेते थे. ऐसा याद है। प्रार्थना में मणिलाल गांधी और मैं ज्यादा रस लेते थे। उस समय आश्रम कोचरब में दो किराये के मकानों में चलता था। रास्ते के उस पार से एक कुएं में से पानी खींचकर लाना पड़ता, इसलिए हम सब पानी भरने के काम में निश्चित समय पर लग जाते। उस समय का एक मजे का किस्सा याद आता है। कुएं में से पानी खींचनेवाले हम दो-तीन लोग थे, बाकी के सब हम दें, उतना पानी उठाकर आश्रम में पहंचाते । आश्रम के सारे बर्तन भर दिये, फिर २४ घंटों तक पानी की कोई चिन्ता नहीं रहती थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस काम में पूज्य बापूजी भी भाग लेते थे। एक दिन मैंने उनसे कहा, "हम छोटे-बड़े काफी लोग हैं, पानी की व्यवस्था ठीक तरह से बैठ गई है। आपके लिए दूसरे बहुत काम पड़े हैं, आप इसमें न आवे तो चलेगा।" किन्तु बापू नहीं माने, तो मैंने आश्रम के छोटे-बड़े बच्चों के साथ एक षड्यंत्र रचा। हम पानी खींचते जाते और जो कोई हाजिर हो, उसके बर्तन में पानी उंडेलते और बर्तन उसके सिर पर रख देते। पानी ले जाने के लिए जितने भी बर्तन थे, उतने लड़कों को मैंने बुला लिया। एक बर्तन में पानी भरूं और एक लड़के के सिर पर रख दं । बापूजी वहां खड़े थे। उनको पानी मिले ही नहीं। एक-दो बार ऐसा हआ और तुरन्त बापूजी के ध्यान में बात आ गई। एक भी बर्तन उनको मिलता नहीं था। बापू के मन में उलझन हुई—फिर क्या करूं? अपने लिए बर्तन ढूंढ़ने आश्रम गए, वहां एक भी बर्तन खाली न था। एक कमरे में से दूसरे में गए, बर्तन नहीं मिला, सोनहीं ही मिला । मैंने पक्का षड्यंत्र किया है, यह वे समझ गए, किन्तु पराजय कबूल करें तो बापूजी कैसे ? एक कमरे में छोटे बच्चों को नहलाने के लिए एक अच्छा सा टब था, उसमें पानी भर तो सकते थे; लेकिन भरा हुआ टब उठाकर घर में ले जाना मुश्किल था। इसलिए हमने उसे रहने दिया था। उसको खाली कर बापूजी ले आये और मेरे सामने रखकर बोले, "इसमें पानी भर दो।" मैंने दलील की, "इसमें पानी रहेगा तो सही, लेकिन इसे उठाकर ले कैसे जायेंगे?" बड़े ठंडे दिमाग से बापूजी बोले, “यह काम मेरा है। आप तो इसमें पानी भर दीजिए।" मैं हारा। उत्साह-उमंग से पानी लेने दौड़ते आते बच्चे से मैंने एक अच्छा बर्तन मांग लिया। वह भरकर बापूजी को दिया। लेकिन बापूजी कहां मानने वाले थे ! कहने लगे, १५४ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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