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________________ नाम रक्खा---'सैल्फ हैल्पर्स फूड-रिफॉर्स लीग' । उसमें दो-तीन अध्यापक और आठ-दस विद्यार्थी थे। रसोई करने का और बर्तन मांजने का काम हम ही कर लेते थे। 'नौकर नहीं रखना' यह हमारा नियम था। स्वावलंबन हमारा सिद्धान्त और खुराक में भात के साथ रोटी भी खाते थे । सब्जी में सिर्फ हल्दी और नमक डालते थे, मिर्च-मसाला नहीं। यह था हमारा आहार-सुधार। हमारी इस लीग में एक अच्छी प्रतिष्ठावाला युवा अध्यापक शामिल हुआ--सन्तोष मजूमदार। हमारा काम पूरे वेग से चला। बाद में पूज्य बापूजी ने हमारे इस काम को देखकर हमारी इतनी अधिक कदर की कि सारा प्रयोग चौपट हो गया। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के विजयी वीर, गुरुदेव के नये-नये किन्तु अत्यन्त आदरणीय मेहमान, जिनकी प्रशंसा करते मि० एन्ड यूज कभी थकते नहीं थे, ऐसे गांधीजी शान्तिनिकेतन आये । इतनी बड़ी संस्था के सारे अध्यापकों ने और विद्याथियों ने धार्मिक ढंग से उनका भव्य स्वागत किया। लोगों में आदर और उत्साह का ज्वार आया । गांधीजी के जैसे कसे हुये लोक-नेता ऐसे वायुमण्डल से फायदा उठाये बिना कैसे रहते ? उन्होंने हमारी छोटी-सी लीग की प्रशंसा की 'तुम्हारी इस छोटी-सी लीग को शान्ति निकेतन-व्यापी बनाना चाहिए।" महाराष्ट्रीय स्पष्टवादिता के साथ मैंने अपना मतभेद व्यक्त किया, "बापूजी, आपकी संस्था के लोगों को इन लोगों ने आदरपूर्वक यहां रखा। यहां के लोग आदर के साथ आपके प्रयोग देखते हैं। उनमें से शान्तिनिकेतन के थोडे उत्साही विद्यार्थी और अध्यापकों को लेकर मैंने अपना प्रयोग चलाया है। मुझे अपना यह छोटा-सा काम करने दीजिये। आप यहां आदरणीय अतिथि हैं। व्यवस्थापकों पर प्रभाव डालकर आप सारी संस्था में क्रान्ति कराना चाहता हैं । गुरुदेव भी जब यहां उपस्थित नहीं हैं, तब यह कहां तक उचित है ?" इतनी स्पष्ट चेतावनी का भी महात्माजी के मन पर कोई असर न हुआ। उन्होंने तो जगदानन्दबाबू शरदबाबू, संतोषबाबू आदि लोगों को बुलाकर संस्था में परिवर्तन करने की सूचना की। सूचना का आह्वान ही किया। बेचारे व्यवस्थापक दब गये, मान गये। संस्था के तमाम नौकरों को छठी दी। भात के स्थान पर रोटियां खिलाने की प्रथा भी शुरू हुई। महात्माजी ने मुझसे पूछा, "इस नई व्यवस्था की जिम्मेदारी आप लेंगे?" मैंने साफ इन्कार किया। मैंने कहा, "ऐसी व्यवस्था का मुझे पूरा अनुभव है। यदि मैं जिम्मेदारी लं,कहीं क्षति नहीं होने दूंगा, लेकिन मुझे तो यह अनाधिकार चेष्टा लगती है। मुझे जो वस्तु प्रिय है, उसमें मैं शामिल होऊंगा, पूरा सहयोग दूंगा, प्रयोग को निष्फल नहीं होने दूंगा, किन्तु पूरा भार सिर पर लेने की मेरी बिल्कुल तैयारी नहीं है । अंग्रेजी में एक कहावत है, 'नथिंग सकसीड्स लाइक सकसैस' मनुष्य को एक बार विजय मिली तो फिर विजय मिलती ही जाती है।" मैंने जहां जोर से 'ना' कहा, वहां गंगनाथ के मेरे ही पुराने साथी मद्रासी राजंगम पूरा भार लेने को तैयार हो गये। पूरी क्रान्ति अमल में लाते बापूजी को कोई मुश्किल नहीं हुई। प्रारंभ तो हमने उत्तम किया। रोटियां सेंकने का काम मेरे हाथ में आया। रोटियां अच्छी-से-अच्छी बनने लगीं। खाने वालों की संख्या बढ़ी। बंगालियों ने मोयन वाली रोटी कभी खायी ही न थी। उन्होंने तो चमड़े जैसी रोटी खाई थी। अब गैर-जिम्मेदारी प्रकट हुई। महात्माजी रंगून जाने को निकले-डॉ० प्राण जीवन मेहता से मिलने। हमारे राजंगम ने डॉ० मेहता के यहां ट्यूटर का काम किया था। इसलिए वे भी बापूजी के साथ जाने को तैयार हो गये। मैंने अपना आश्चर्य व्यक्त किया तब बापूजी ने बड़ी शान्ति से जवाब दिया, 'मैंने देख लिया है कि आपमें पूरी सजगता है। आप ही सारा चला रहे हैं। राजंगम को नहीं रोक सकते। काम अच्छी तरह चलेगा; इसमें मुझे कोई शंका नहीं।" राजंगम बापूजी के साथ चले गये। बाद में हम लोगों ने चालीस दिन तक उस प्रयोग को टिकाये रखा। बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १५१
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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