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________________ आश्रम में दाखिल हो गया, अथवा जैसे मैं कह चुका हूं, केशवराव देशपाण्डे को पत्र लिखकर गाधीजी ने स्वयं मुझे अपने आश्रम में खींच लिया । मेरे पूरे जीवन में इससे अधिक महत्व का कोई प्रसंग नहीं हो सकता । १३ :: प्रान्तीयता और मेरा संकल्प जब मैं शान्तिनिकेतन देखने प्रथम बार गया तब मुजफ्फरपुर में कृपालानी को मिलकर उनके भतीजे गिरधारीको देखने वहां (शान्तिनिकेतन) में गया था, ऐसा कुछ ख्याल है । उस समय जिस कमरे में मुझे रखा था, उसके सामने के रास्ते पर गुरुदेव टहलने लगे। मैं किस तरह मान लेता कि मुझसे मिलने गुरुदेव आये हैं, किन्तु सद्भाग्य से ध्यान में आया और मैं भी टहलने में शरीक हुआ। उस समय मैं हरिद्वार के ऋषि कुल का अवैतनिक मुख्य-व्यवस्थापक था। गुरुदेव ने माना था कि मैं पंजाबी होऊंगा इसलिए उन्होंने उस ढंग से बातें शुरू कीं । विनय के खातिर एक - दो सवाल के जवाब मैंने दिये और फिर स्पष्ट किया, "मैं महाराष्ट्रीय हूं, ऋषिकुल के संस्थापकों के हाथ में फंस गया हूं। मैं हूं तो सनातनी, किन्तु मुझे आप विवेकानन्दी मान सकते हैं । " हंस पड़े और फिर दिल खोलकर हमारी बातें हुईं। दूसरे दिन मैं वापस गया । उसके बाद मैंने उनको पत्र लिखा : " गीताञ्जलि' के कवि को और 'मॉडर्न रिव्यू' के लेखक को मैं पहचानता हूं । शान्तिनिकेतन में आपसे यानी शिक्षण-शास्त्री टैगोर से मिला । स्वयं शिक्षण - शास्त्री होने के कारण आपकी संस्था देखकर आपके प्रति मेरा आकर्षण जागा है। आपकी संस्था में चार-पांच महीने रहे बिना आपका आदर्श अच्छी तरह ध्यान नहीं आ सकेगा । इसलिए मुझे चार-छः महीने अपनी संस्था में शिक्षक के तौर पर काम करने दीजिए। मुझे पैसों की जरूरत नहीं । अतः मैं वेतन नहीं मांगता और मेरे पास पैसे हैं भी नहीं, इसलिए खाने का खर्चा नहीं दे सकूंगा। मुझे आपकी संस्था में रहने-खाने दीजिये और में विद्यार्थियों को पढ़ाऊंगा ।" इतना लिखने के बाद मैंने आगे लिखा, "राष्ट्रीय शिक्षक की दो-तीन संस्थाएं मैंने चलायी हैं । अवतनिक शिक्षक कितने अव्यवस्थित और गैर-जिम्मेदार होते हैं, उसका मुझे ख्याल है । इसलिए मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूं कि जितने दिन शांतिनिकेतन रहकर काम करूंगा, उतने दिन संस्था के आदर्शों और नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करूंगा । केवल शाब्दिक पालन नहीं, बल्कि हार्दिक रूप से पालन करूंगा । " मुझे यकीन था कि इतने आश्वासन के बाद मुझे आमंत्रण मिलेगा ही और आमंत्रण आ भी गया । मैं वहां रहने गया तब गुरुदेव कलकत्ता थे मुझे रहने के लिए कमरा और सिखाने के लिए वर्ग मिलते हुई। बड़ी संस्था में व्यवस्था ऐसी ही होती है। मैंने अपने मन को मना लिया। फिर गुरुदेव आये । वातावरण में एकदम अंतर आ गया। डायरेक्ट मैथ्स से अंग्रेजी सिखाने का काम मुझे सौंपा गया। मुझे क्या पता था कि मि० ऐन्ड्रयूज यहां-वहां टहलते टहलते मेरी शिक्षण की पद्धति को देखते और सुनते होंगे । उन्होंने गुरुदेव को मेरे बारे में अच्छी राय दी होगी। इस संस्था में मैं सफल हुआ, उसका लाभ लेकर शान्तिनिकेतन में मैंने एक छोटे से मण्डल की स्थापना की। अलबत्ता मुख्य व्यवस्थापक की अनुमति से । मण्डलका १५० | समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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