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________________ अंग्रेज सरकार ने जब हमारे इस प्रयोग को अशक्य कर दिया तब पुत्र-कलन छोड़कर आध्यात्मिक साधना के लिए हिमालय गया, वहां अद्वैत-वेदान्त और माता की उपासना (शुद्ध दक्षिण मार्गी देवी उपासना) ये मेरे ध्यान-चिन्तन के विषय थे। तदुपरांत कुदरत में और मनुष्य-समाज में-परमेश्वर के दर्शन करने की मेरी साधना भी खूब जोश से चली। काश्मीर से नेपाल तक हिमालय की यात्रा की। एक जगह बैठकर मंत्र-साधना की, खूब शान्ति मिली, किन्तु देश जबतक स्वतन्त्र नहीं हुआ है, उसके लिए मर-मिटना चाहिए, यह उत्कट भावना किसी तरह मुझे छोड़ती नहीं थी। राष्ट्रीय शिक्षण के द्वारा समस्त जनता को क्रान्ति के लिए तैयार करना ही चाहिए, यह विचार मुझे छोड़ता नहीं था। हिमालय की यात्रा में अति श्रम के कारण बीमार होने से मैं थोड़े दिन देहरादून आकर रहा था, उस दौरान परिचित लोगों के साथ इसकी ही चर्चा मैं करता रहा । मुझे लगा कि उत्तर भारत में धर्म-सुधारक आर्य-समाजी लोगों ने गुरुकुल चलाये हैं, वे देखने चाहिए। उनकी इस प्रवृति को देख सनातनियों ने ऋषिकूल शुरू किये हैं, उसका भी अनुभव लेना चाहिए। मैंने यह भी सुना कि हाथरस की तरफ के एक राजा महेन्द्र प्रतापसिंह ने क्रान्तिकारी विचारों से प्रेरणा लेकर वृन्दावन में प्रेम-महाविद्यालय की स्थापना की है, वह भी देखना चाहिए। इस तरह कातिकारी शिक्षण-संस्थाएं देखने का अनुभव लेता हुआ घूमता रहा । कविवर रवीन्द्रनाथ की संस्था शान्तिनिकेतन के बारे में बहुत सुन रखा था, इसलिए वहां चार-पांच महीने रहा। संस्कृति की दृष्टि से रवीन्द्रनाथ के विचार मुझे ज्यादा ठोस और साथ-साथ पूरे आधुनिक लगे। मैंने देखा कि शान्तिनिकेतन में अनेक आदर्शों का आग्रहपूर्वक प्रयोग चलाते हुए भी अन्त में तो विद्यार्थी को कलकत्ता यूनिवर्सिटी की मैट्रिक के लिए तैयार करते हैं। यह बात मुझे चुभती थी। मैंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ से यह कहा भी। उन्होंने मुझे समझाया कि हमारे विधुशेखर शास्त्री 'विश्वभारती' नाम की एक विद्यापीठ की स्थापना करना चाहते हैं उसमें आप शामिल हो सकेंगे। उस वक्त मुझे उस संस्था का पूरा ख्याल नहीं था, नहीं तो उसमें हमेशा के लिए शामिल हो जाता। मन में यह विचार आता था कि यदि मैं शिक्षण द्वारा काम न कर सकू तो स्वामी विवेकानन्द के रामकृष्ण मिशन द्वारा धर्म-क्रान्ति का काम क्यों न करूं? श्री रामकृष्ण परमहंस के एक उत्तम शिष्य महेन्द्रनाथ गुप्त ने अपना पूरा नाम जाहिर किये बिना 'गॉस्पल ऑफ श्री रामकृष्ण बाई एम०' नाम की एक-दो किताबें प्रसिद्ध की थीं। मेरे मित्र ने उनका मराठी करके छापा था उसमें मेरा हाथ भी था, इसलिए मैं 'एम' से मिला। विवेकानन्द के कई अद्वैत आश्रम और सेवाश्रम मैंने देखे थे। उसमें दाखिल होने का विचार भी आया था, किन्तु निर्णय नहीं हो पाता था। इतने में महात्माजी के दक्षिण अफ्रीका के आश्रम के लोग भारत में आकर कुछ दिन के लिए शान्तिनिकेतन में ठहरे थे। इतना तो मैं स्नेहियों से जान ही सका था कि गांधीजी में धार्मिकता भरी हुई है, राष्ट्रभक्ति पूरी-पूरी है, क्रान्तिकारी शिक्षण उन्हें मान्य है। इसलिए मैं शान्तिनिकेतन में वर्ग लेता किन्तु भोजन करता गांधीजी की फीनिक्स पार्टी के साथ । फिर जब गांधीजी विलायत होकर भारत वापस आये तब प्रथम बार उनके दर्शन हुए शान्तिनिकेतन में ही। उन्होंने सूचित किया था कि "भारत में किसी अच्छे स्थान पर मैं एक आश्रम शुरू करनेवाला हूं यदि तुम चाहो तो उसमें दाखिल हो सकते हो।" गांधीजी के साथ मैंने आठ-दस दिन तक जी-भर चर्चा की थी। मुझे विश्वास हो चुका था कि उनकी अहिंसा दुर्बल या जीवन-विमुख नहीं है, उसके पीछे क्षात्र-तेज है, इसलिए कई पुराने सम्बन्धों की वफादारी की निष्ठा संभालने के बाद मैं गांधीजी के बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १४६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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