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गुजरात-भर में रंगरूट भरती के लिए घूमने लगे। उसमें उनको सफलता नहीं के बराबर मिली। एक दिन आश्रम में वापस आये तब कुछ चिढ़कर कहने लगे, "इन 'वैष्णवों ने' और 'जैनियों ने' लोगों की तेजस्विता का हनन कर दिया है।"
जिस दिन फौज में भरती होना मैंने कबूल किया, उस दिन की बात सुनते ही काकी तो गुस्से से आगबबूला हो गई।
"अंग्रेजों के पक्ष में लड़ने के लिए काकासाहेब उनके सैन्य में भरती हो जायं, यह मैं कभी पसन्द नहीं करूंगी । अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को तैयार हों तो मैं समझ सकती हूं। उसका विरोध मैं नहीं करूंगी, किन्तु यह बात तो मेरी कल्पना से परे है ।"
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महादेवभाई ने यह भूमिका सविस्तर गांधीजी को सुनायी। अपनी भूमिका काकी को समझाने के लिए काकी ने अपनी दृष्टि सुनायी, "बापूजी, आप ऐसा न माने कि मैं कायर हूं । मेरा नाम लक्ष्मी है। झांसी की रानी का चरित्र मैंने पढ़ा है। जबसे काकासाहेब कालेज के दिनों में अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र में शामिल हुए थे तब से मैं समझ गई हूं कि एक न एक दिन वे पकड़े जाएंगे और उनको फांसी की सजा भी हो सकेगी और मुझे विधवा का जीवन व्यतीत करना होगा। इसके लिए मैंने अपना मन तैयार कर रखा है । कल यदि आप अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध जाहिर करेंगे तो मैं काकासाहेब को लड़ने के लिए जरूर भेजूंगी। इतना ही नहीं, किन्तु मेरे दो बेटे यदि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते-लड़ते प्राण खो देंगे तब भी मैं नहीं रोऊंगी। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को अपने बेटों को मैं हमेशा तैयार रखूंगी।
" किन्तु जिन अंग्रेजों का राज्य तोड़ने का काकासाहेब का निश्चय है, उनके ही पक्ष में जर्मनों के सामने लड़ने के लिए काकासाहेब को भेज रहे हैं, उसमें मेरी सम्मति कभी भी मिलनेवाली नहीं है । 'अंग्रेजों के पक्ष में काकासाहेब लड़ रहे हैं।' ये शब्द भी कैसे असह्य लगते हैं।" बापूजी का जवाब सुनने को भी काकी तैयार नहीं थी इसलिए बात वहीं रह गई ।
हम तीनों के नाम सरकार के पास गये ही थे । सरकार के आमंत्रण की हम राह देख ही रहे थे, किन्तु वह नहीं आया । परिस्थिति बदल गई । जर्मनों का पक्ष निर्बल बन गया ।
११ : सिंध के प्रति आत्मीयता
महाराष्ट्र के लोगों में जल्दी-जल्दी अपना अभिप्राय बनाने की आदत है । मनुष्य के दोष झट पहचान लेते हैं । उसमें भी गहरे निरीक्षण से अधिक छिछले अनुभवों पर जल्दी-जल्दी अभिप्राय बांध लेते हैं । ये सब देखकर कालेज के दिनों में इसके सामने मैं काफी चर्चा करता था। ऐसी भावना के कारण अलग-अलग बिरादरी के सम्बन्ध हम खूब बिगाड़ते हैं, इसकी बात तो मैं करता ही था साथ-साथ विद्यार्थी जगत के सामने मैं यह बात भी बार-बार कहता था कि अन्य प्रान्त के लोगों के साथ हमें सम्बन्ध बढ़ाने चाहिए। उनके कांजी बनने की वृति हमें छोड़ देनी चाहिए इत्यादि ।
मैं बेलगांव कीतरफ का रहनेवाला इतना सुनकर लोगों ने मुझे 'कान डी अप्पा' मान लिया और तीसरे क्लब में भेज दिया । छः महीने के बाद उन लोगों को मालूम हुआ कि मैं तो महाराष्ट्री हूं मेरा जन्म सतारा का और प्राथमिक शिक्षा पूना में ली है। फिर उन लोगों ने मुझे दूसरे क्लब में ले लिया, जो उन दिनों ऐरिस्ट्रो
१४६ / समन्वय के साधक