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________________ दूसरी एक महत्व की चर्चा बापूजी और काकी के बीच चली थी। दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत वापस आकर भारत के सार्वजनिक जीवन में हिस्सा लेने का और गुजरात में अपना आश्रम स्थापित करने का बापूजी ने निर्णय लिया। हम सब बापूजी के पास गये। उन प्राथमिक दिनों की यह बात है। उस समय तक गांधीजी की अहिंसा पूरी कड़ी नहीं हुई थी और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ पूरा नाता तोड़ने का भी उनके मन में उगा नहीं था। गांधीजी ब्रिटिश राज्य के खिलाफ जब जरूरत पड़े तब लड़ते सही, किन्तु तबतक उनके मन में विश्वास था कि कुल मिलाकर ब्रिटिश साम्राज्य भारत का अहित नहीं करेगा। हम उस साम्राज्य में दाखिल तो हो गये हैं, इच्छा से या इनिच्छा से। तब अपना स्वभाव तेजस्विता छोड़े बिना उस साम्राज्य के प्रति हम वफादार रहें, मुश्किल खड़ी होने पर साम्राज्य की मदद भी करेंगे और यदि साम्राज्य की ओर से अन्याय हो तो उसके सामने लड़ भी लेंगे। जब गांधीजी की ऐसी भूमिका थी, उन्हीं दिनों में ब्रिटिश साम्राज्य और जर्मनी के बीच युद्ध छिड़ गया। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से विलायत गये। उन्होंने वहां विलायत में रहते भारतीय युवकों का संगठन करके घायल सिपाहियों की सेवा करने के लिए एक सेवा-दल स्थापित करने की कोशिश की थी। किन्तु वे बीमार हो गये और उनको भारत लौट आना पड़ा। उस जागतिक युद्ध के लिए अंग्रेज भारत से मदद चाहते थे। ब्रिटिश वायसराय ने देश के कई नेताओं को दिल्ली बुलाया। गांधीजी को भी आमंत्रण था। अंग्रेजों की तरफ से लड़ने के लिए देश के युवकों के बीच रंगरूट भरती का प्रयत्न गांधीजी ने स्वीकार किया और वे दिल्ली से वापस आये। रंगरूट भरती सारे देश में करने की थी किन्तु उसका आरम्भ गुजरात से करना गांधीजी के लिए स्वाभाविक था। गांधीजी जानते थे कि जर्मनों के विरुद्ध अंग्रेजों के पक्ष में लड़ने के लिए लोग आसानी से तैयार नहीं होंगे। अतः उस दिशा में प्रयत्न करने का गांधीजी ने सोचा । गांधीजी ने कहा, "गुजरात का प्रचार आश्रम से ही शुरू होना चाहिए। इसलिए हम आश्रमवासियों को एकत्र करके उन्होंने हमें सब बातें समझाते हुए कहा कि युद्ध के लिए रंगरूट भरती का काम मैंने अपने सिर पर लिया है, इसलिए जानना चाहता हूं कि आश्रम में से भरती होने को कौन-कौन तैयार हैं ?" आश्रमशाला के आचार्य विज्ञान-विद् साकलचन्दभाई को बापूजी ने प्रथम पूछा । उनका जवाब सुनकर बापूजी को बहुत बुरा लगा। "ना रे बाबा ! हम तो बनिया ठहरे ! बन्दूक पकड़ने का हमारा काम नहीं ?" उन्होंने एक वाक्य में जवाब दे दिया। बापूजी ने मेरी तरफ नजर की और मुझसे पूछा। इससे पहले सारी परिस्थिति उन्होंने हमें समझाई थी कि इस वक्त यदि हम अंग्रेजों की मदद करेंगे तो उनका हमारे प्रति जो अविश्वास है सो दूर हो जायेगा। साम्राज्य में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और स्वराज्य-प्राप्ति के लिए यह एक उत्तम कदम होगा, इत्यादि।" गांधीजी की बातें सुनकर मैंने कहा, "आप देश के याने हम सबके नेता हैं। हमारी ओर से आप वचन दे चुके हैं। उस वचन का पालन करना हमारा धर्म है। मैं फौज में दाखिल होने ले लिए तैयार हूं। यूरोप के युद्ध में अवश्य हिस्सा लूंगा।" मेरे पीछे-पीछे हमारे नरहरिभाई परीख और पृथु शुक्ल नाम के एक युवा कवि तैयार हुए। इतने बड़े आश्रम में से तीन ही व्यक्ति तैयार हुए। यह संख्या उत्साहवर्धक नहीं थी, किन्तु तीन तैयार हुए यही शुभ शकून था। गांधीजी ने हम तीनों के नाम सरकार के पास भेज दिये और वल्लभभाई को साथ लेकर स्वयं बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १४५
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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