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________________ सेवक ढूंढने पड़ें, यह कुछ ठीक होगा? इसीलिए बापूजी के प्रति मेरा चाहे कितना उत्कट आकर्षण हो, मैं केशवराव को छोड़ नहीं सकता।" पूज्य बापूजी ने हम दोनों का संवाद सुना, वे खुश हुए उनसे रहा न गया। मुझसे कहा, "काका, तुम्हारी बात सोना-मुहर जैसी है। देश के सब सेवक ऐसी निष्ठा रख सकें तो स्वराज्य दूर नहीं।" बात वहां समाप्त हो गई। मैं मन में फूला न समाया। स्वयं गांधीजी ने मेरी कदर की, इससे ज्यादा मुझे क्या चाहिए ? कांग्रेस समाप्त हुई, बापूजी आश्रम गये और मैं बड़ौदा।। किन्तु मेरा भाग्य मुझे कैसे छोड़े ? बापूजी ने अहमदाबाद से देशपाण्डे साहब को पत्र लिखा । उसमें लिखा था, "आपके पास काका हैं, आप उनका कोई विशेष उपयोग करते हों, ऐसा नहीं लगता। आश्रम में हम एक शाला चलना चाहते हैं, इत्यादि इत्यादि।" इस तरह से बापूजी ने केशवराव से मेरी मांग की। केशवराव ने मुझे बापूजी का पत्र दिखाया और पूछा, "क्या विचार है तुम्हारा?" मैंने कहा, "इसमें मुझे सोचने का कुछ है ही नहीं। मैंने तो अपनी सेवा आपके चरणों में अर्पित की है। गांधीजी ने आपको लिखा है, आप जाने और बापूजी जाने।" केशवराव ने कहा, “इतने महान पुरुष मांग कर रहे हैं और आश्रम में भी राष्ट्रीय शिक्षा का काम है। गंगनाथ में आप काम करते ही थे। बापूजी के आश्रम को भी गंगनाथ समझ लीजिये और जैसे यहां राष्ट्रीय शिक्षण का कार्य करते थे वैसे वहां कीजिये।" मुझे तो सोचने का था ही नहीं। गांधीजी के आश्रम के लोगों के साथ तो मैं पहले से घुलमिल गया था। इसलिए एक दिन मुझे लेकर केशवराव बड़ौदा से अहमदाबाद गये और उन्होंने मुझे बापूजी को सौंप दिया। यह बात आगे चलकर मैंने महादेवभाई से कही, तब उन्होंने कहा, "पिता जैसे बेटी का कन्यादान करते हैं, उसी तरह आप बापूजी को अर्पित हुए।" शन्तिनिकेतन, सयाजीपुरा की ग्रामसेवा और गांधीआश्रम इन तीन तरह के आकर्षणों का इस तरह अन्त आया। गुरुदेव ने मेरे बारे में बापूजी को जो ताना दिया था, वह तो बाद की बात है। 'गुजरात साहित्य परिषद' की तारीख देखने से उसका पता लग सकता है। ६. मेरा वैवाहिक जीवन एक बहन और छह भाइयों में मैं सबसे छोटा था, इसलिए बिलकुल छोटी उमर से घर के वायुमण्डल से अच्छी तरह परिचित था। जीवन के बारे में मैं कुछ भी समझ सकू, इससे पहले मेरे दो बड़े भाई बाबा और अण्णा के ब्याह हो चुके थे। उन दोनों की पत्नियां मुझे घर के बच्चे के तौर पर नहलाती, खिलातों, प्यार करतीं और धमकाती भी थीं। दूसरे भाई विष्णु की शादी हुई, तब उसे घोड़े पर बैठकर बारात में जाते देखा था उसका स्मरण है। चौथा केशूका लग्न हआ । उसकी पत्नी रमा मेरी ही उमर की थी। हम बच्चे भाईबहन की तरह खेलते और शाम को कहानियां कहते। मेरे सब भाइयों के मुकाबले में मेरी शादी कुछ बड़ी उमर में हुई। मैं सोलह या सत्रह साल का रहा हूंगा। शादी के बाद तुरन्त गृहस्थाश्रम शुरू करना तो अशक्य ही था । पत्नी उमर लायक भी नहीं होती और एक ही घर में एकत्र रहते हए भी पति-पत्नी आपस में बात नहीं कर सकते थे। चोरी से बोलना तक नहीं मिला। १४२ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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