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________________ १९०२ के जेठ महीने में मेरी शादी हुई । १९०३ में मैट्रिक पास कर १९०४ में कालेज गया। बचपन से मैं एक तरफ ईश्वर-भक्त और कर्मनिष्ठ और दूसरी तरफ रूढियों का विरोध करनेवाला। घर में मैं बड़ों का आदर रखता, फिर भी पत्नी के साथ खुल्लम-खुल्ला बोलने की भी इच्छा होती। मेरे साथ बोलने की हिम्मत पत्नी तो नहीं कर सकती, किन्तु मैं उसके साथ क्यों न बोलू? मैंने एक अच्छा रास्ता ढूंढ़ निकाला। घर में पिताजी और मां की अधिक-से-अधिक सेवा करनेवाला मैं था। जब पत्नी आ गई, तब सासससुर की सेवा करने का काम उसका हो गया, तब मां और घर की दूसरी बहनों की उपस्थिति में मैं पत्नी से सीधा सवाल पूछता, “स्नान के लिए मां तैयार है ? पानी रखा है ? मां के कपड़े तैयार रखे हैं ?" पिताजी के कार्यों में भी ऐसे ही सवाल पूछता रहता । घर के बड़े लोग मुझ पर हंसते । गृहस्थाश्नम तो अभी शुरू भी नहीं हुआ और अपनी पत्नी के साथ बोलने लगा। बेचारी पत्ती शर्म के मारे पानी-पानी हो जाती । लेकिन जब सबने देखा, सिर्फ मां-बाप की सेवा के सम्बन्ध में ही प्रश्न पूछता है, सूचना देता है, अन्यथा पत्नी के साथ नहीं बोलता। मातृ-भक्ति और पितृ-भक्ति के कारण इतनी हद तक ही पुरानी रूढ़ियां इसने तोड़ दी हैं, बाकी संयम में यह किसी से भी कम नहीं है, तब मेरी मजाक एक-दो बार ही हुई, सो हुई फिर तो मेरा हक सबको मान्य हो गया । पत्नी भी बिना कुछ बोले सिर हिलाकर जवाब देती, "सब ठीक है।" समाज में मेरी उमर के युवक-युवतियों को जब मेरी इस हिम्मत का पता चला तब वे मेरी प्रशंसा करने लगे। "आप चतुर निकले। मां-बाप की भक्ति आगे करके पत्नी के साथ बातें करने का हक प्राप्त कर लिया।" मैं भी खुश होकर कहता, "प्राप्त किया, इतना ही नहीं, उस पर अमल भी करता हूं।" उसके बाद दूसरी तरह से पत्नी के साथ बात करने को जी चाहे तब उसको नहीं, किन्तु भाभी को मैं . सब बातें बताने लगा। वे हंसी में कहती, "हमसे क्यों कहते हैं ? आपकी पत्नी यहां खड़ी है, उससे सीधा कहिये । मैं सिर्फ हंस देता। फिर भी भाभी द्वारा मैं तो सूचना ही दे सकता था। कुछ काम रह गया हो तो उसकी ओर ध्यान खींचता । कभी-कभी जरा-सी चिढ़ भी व्यक्त करता। मेरे पास से किसी तरह के स्नेह के शब्द तो कैसे मिलते ? एक दिन मेरे ध्यान में आया कि वह हमेशा कुछ उदास-सी दीखती है। इसका क्या इलाज ? एक दिन मुझे सूझा, भोजन के बाद मैं इलायची ले रहा था। एक ज्यादा ले ली और मेरे कमरे की ओर जाते-जाते इलायची के दाने निकालकर उसके हाथ में रखकर चल दिया। उसके बाद मैंने देखा कि उसके चेहरे पर प्रसन्नता दीख रही है। एक दिन आंगन में कुर्सी पर मैं बैठा था आपपास कोई नहीं था। जाते-जाते हिम्मत बटोर कर उसने कह दिया, "इलायची के उन दानों ने आपके प्रेम का मुझे भरोसा दिलाया । अब भले ही जीवन में कितने ही संकट आयें मुझे उनकी परवा नहीं।" जीवन में उसका यह पहला ही वाक्य था, इसलिए याद रह गया है। मेरे पिताजी को अंग्रेज सरकार की नौकरी में, कई बार देशी राज्यों में जाना पड़ता। राजा छोटा हो, तब उसका राज्य कैसा चल रहा है, उसकी रिपोर्ट भी पिताजी सरकार को देते। माता-पिता के साथ मैं और काकी भी आदरणीय अतिथि बनते तब वहां के बगीचे, म्यूजियम इत्यादि देखने जाते। वैभव भोगने के लिए नहीं है किन्तु तटस्थ होकर देखने का मौका मिले, तब जीवन समृद्ध होता है। हरेक स्थान का महत्त्व मैं सबको समझाता रहता । इसी तरह काकी की शिक्षा बढ़ती जाती। फिर तो हम नजदीक भी आये, एकांत में बातें होने लगीं। हमने खूब मुसाफिरी की। मेरे जीवन में अनेक परिवर्तन हुए । घर छोड़कर मैं हिमालय गया । बाद में हिमालय से वापस आया। बड़ौदा में केशवराव देशपाण्डे के साथ रहा। वहां से गांधी-आश्रम में गया। ये बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १४३
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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