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ये सब बातें गांधीजी शान्तिनिकेतन में आये, उन्हीं दिनों की थीं। गांधीजी जब दुबारा शान्तिनिकेतन आये तब उन्होंने मुझ से कहा, "मैं आया हूं, अब मेरा आश्रम खोलूंगा। हमारी फीनिक्स पार्टी में आप अच्छी तरह से घुल-मिल गये हैं । आप मेरे आश्रम में आ सकते हैं।"
__उस समय मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, किन्तु गुरुदेव के पास जाकर कहा, “आप जानते हैं कि अपना हृदय मैं आपको दे चुका हं। आपकी शिक्षा-प्रवृतियां मुझे अच्छी लगती हैं। आपके साथ काम करने का मैंने लगभग स्वीकार कर लिया है, किन्तु अब मेरा मन गांधीजी के प्रति आकर्षित हो रहा है। इसका कारण सरल भाव से कहना चाहता हूं। बड़ौदा की हमारी संस्था जब बन्द हुई तब निराश होकर मैं हिमालय गया, वहीं हमेशा के लिए रह सकता था, किन्तु स्वराज्य का संकल्प मुझे वापस खींच लाया। आपके यहां रहने में मुझे हर तरह का सन्तोष रहेगा, किन्तु मैं मानता हूं कि गांधीजी आपसे जल्दी स्वराज्य ला सकेंगे, इसीलिए उनके यहां जाने की इच्छा होती है।"
उदारता से और प्रसन्नतापूर्वक गुरुदेव ने मुझे अशीर्वाद दिया। वर्षों के बाद मैंने सुना कि बापूजी ने गुरुदेव से मेरी मांग की थी और गुरुदेव ने जवाब में कहा था, "दतात्रेय बाबू की सेवा मैं आपको उधार दे सकता है।" फिर तो मैं गांधीजी के आश्रम में पुराना हो गया। एक समय अहमदाबाद में गुजराती साहित्य परिषद हई और उसमें सम्मानित मेहमान के तौर पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को आमंत्रित किया। वे आये और चार दिन आश्रम के मेहमान रहे। तब हंसते-हंसते गुरुदेव ने बापूजी से कहा, "मैंने दत्तात्रेय बाब की सेवा आपको उधार दी थी, वह वापस करने की आपकी इच्छा नहीं दीखती।" और दोनों खिल-खिलाकर हंस पड़े। यह बात भी मुझे वर्षों के बाद मालूम हुई।
शान्तिनिकेतन और गांधी-आश्रम, इन दो आकर्षणों की बात मैंने की। तीसरा आकर्षण भी मेरे लिए जबर्दस्त था।
हिमालय और शान्तिनिकेतन के आकर्षण को पूरा करके मैं जब गुजरात आया, तब स्वाभाविकतया बड़ौदा के पास सयाजीपुरा जाकर केशवराव देशपाण्डे से मिला। उन्होंने मुझे अपने पास रहने का आमंत्रण दिया और ग्रामवासी जनता की सेवा करने का काम सूचित किया।
हिमालय जाने से पहले उनके हाथ के नीचे मैंने गंगनाथ विद्यालय में काम किया था। मेरे क्रान्तिकारी विचार और शिक्षा का आग्रह-दोनों कारणों से मैं केशवराव का आदमी बन गया था और खास बात तो यह कि गंगनाथ बन्द होने के बाद हिमालय जाने से पहले केशवराव के पास से देवी उपासना की दीक्षा मैंने ली थी, और हिमालय के आध्यात्मिक वातावरण में वह उपासना चलाई भी थी। वह मेरे दीक्षा-गुरु थे। उनका काम करने के लिए मैं मना कैसे कर सकता था, इसलिए वहां रह गया।
योगायोग से उसी साल कांग्रेस बम्बई में हई। उसके लिए पूज्य बापूजी आये थे। प्रार्थना-समाज के पास मारवाड़ी विद्यालय में वे ठहरे थे। मैं रोज उनसे मिलने जाता और घण्टों वहां बैठा रहता। एक दिन बापूजी अपने डेस्क पर बैठकर आये हुए पत्र पढ़ रहे थे, मैं जरा दूर बैठा था। वहां महात्माजी के सबसे बड़े पुत्र हरिलाल मुझसे पूछने लगे, “काकासाहेब शान्तिनिकेतन में आप हमारी फीनिक्स पार्टी में घुलमिल गये थे और जब पूज्य बापूजी वहां आये तब आप उनके इतने करीब आये कि हम सबने माना था कि बापूजी के आश्रम खलने पर सबसे पहले आप ही उसमें दाखिल हो जाएंगे। कितना आश्चर्य है कि अबतक आप वहां नहीं पहुंचे।" मैंने कहा, "आपकी बात बिलकुल सही है, किन्तु हिमालय जाने से पहले जिनके साथ मैं काम करता था वे बैरिस्टर देशपाण्डे ग्रामसेवा कर रहे हैं । उनको मेरी सेवा की आवश्यकता है, इसलिए वहां रहा हूं। अब आप ही कहिए कि मैं पुराने बॉस को छोड़कर नया बॉस करने जाऊं और देशपाण्डे साहब को नये
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १४१