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स्वामी विवेकानन्द के संन्यस्त जीवन का और उनकी लोक-सेवा का उत्तम प्रभाव मेरे मन पर था, फिर भी इस संस्था का स्वरूप और असंख्य संन्यासियों की रूढ़ियां इत्यादि देखकर संन्यास आश्रम के बारे में मेरे मन में बहुत आग्रह नहीं रहा। मुझे लगा कि स्त्री-पुत्रों के प्रति मेरा जो कर्तव्य है और राष्ट्र सेवा के लिए जो वायुमण्डल मैं चाहता हूं उसका विचार करते मेरा भगवे वस्त्र धारण न करना ही ठीक होगा।
गंगनाथ के समय के ढंग का नहीं, किन्तु मेरे परिपक्व विचार के आग्रह के अनुसार नई राष्ट्रीय शिक्षा आरम्भ करने का संकल्प उठा, और मैंने अपने जीवन की दिशा उस तरफ मोड़ ली।
उसी समय शान्तिनिकेतन में गांधीजी से भेंट हुई। उससे पहले गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के लोगों के साथ फीनिक्स पार्टी के साथ अच्छा परिचय हुआ। इस तरह से मानो मेरे भाग्य ने अथवा मेरे जीवनस्वामी ने मुझे गांधी कार्य के साथ बांध दिया।
सन् १९१५ के प्रारम्भ के महीनों में मुझे तीन परिबल एक-से महत्त्व से खींच रहे थे ।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने शान्तिनिकेतन में मुझ से कहा कि शान्तिनिकेतन में आप स्थायी रूप से जुट जायें। आप पसन्द करेंगे, उस स्थान पर शान्तिनिकेतन में आपके लिए झोंपड़ी बनवा दूंगा और शान्तिनिकेतन के स्थायी व्यवस्थापक आपको नियुक्त करूंगा। उन्होंने कहा था, "मेरे पास चाहिए उतने बंगाली विद्वान हैं और ज्यादा को बुला भी सकता हूं, इसलिए सिर्फ पढ़ाने की दृष्टि से मुझे किसी को बुलाना पड़े ऐसा नहीं है, लेकिन जो थोड़े महीने ओपने यहां शान्तिनिकेतन में काम किया है, वह देखकर तथा शान्तिनिकेतन का रसोईघर, विद्यार्थियों का वायुमण्डल सब ध्यान में लेकर आपको मैं स्थायी व्यवस्थापक बनाना चाहता हूं, यदि आप यहां आना स्वीकार करें।" अन्य सब अध्यापकों की तरह मैं भी वृक्ष के नीचे विद्यार्थियों के वर्ग लिया करता था । श्री ऐन्ड्रयूज ने मेरे काम का निरीक्षण किया होगा। गुरुदेव से मैंने सुना कि ऐन्ड्र यूज की राय मेरे लिए अच्छी है ।
गुरुदेव जैसे विश्व-विख्यात कवि की ओर से ऐसा आमंत्रण मिलने पर किसको हषं नहीं होगा और मेरे मन में गुरुदेव शिक्षा - शास्त्री की हैसियत से सामान्य मनुष्य न लगे । वे प्रभावी शिक्षा शास्त्री हैं, यह तो मैं पहचान सका था।
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मैंने गुरुदेव से कहा, "मैं सहर्ष शान्तिनिकेतन में शामिल हो जाऊं पहली बार जब इस बात का उल्लेख हुआ तब मैंने कहा था कि आप नहीं जानते, किन्तु मैं शादी-शुदा हूं, मेरे दो छोटे बेटे भी हैं। उन लोगों को सदा के लिए त्यागकर मैं हिमालय गया था। वह मेरी साधना पूरी हुई । अब यदि मैं शान्तिनिकेतन में आकर रहूं तो मुझे पत्नी को और बच्चों को साथ रखना पड़ेगा। उसके जवाब में ही गुरुदेव ने कहा था, शान्तिनिकेतन की भूमि पर आप चाहें वहां मैं झोंपड़ी बनवा दूंगा ।
जब उन्होंने शान्तिनिकेतन में शामिल होने के लिए पक्का आमंत्रण दिया तब मैंने जो उत्तर दिया वह यहां देने योग्य है । मैंने कहा, "हरिद्वार में आर्य समाज का गुरुकुल चलता है । उसे चलानेवाले लोग गरीब हैं। केवल जनता की मदद से इतनी बड़ी संस्था वे चला रहे हैं। सरकार से सहायता नहीं मांगते । यहां शान्तिनिकेतन के पीछे आप जैसे धनी जमींदार का आधार होते हुए भी शान्तिनिकेतन में आप बच्चों को कलकत्ता की मैट्रिक के लिए तैयार करते हैं, इसलिए इस संस्था में दाखिल होने में मन में कुछ संकोच-सा रहता है।"
गुरुदेव एक क्षण में मेरी बात समझ गये। उन्होंने कहा, "आप विधु शेखर बाबू से मिलें। इसी भूमि पर 'विश्व भारती' नाम की नई संस्था चलाने जा रहे हैं । उसमें दाखिल होते आपको कोई संकोच नहीं होगा।"
१४० | समन्वय के साधक