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घर में मैं सबसे छोटा था, परन्तु जैसे मां और पिताजी अपनी भावनाएं मेरे सामने खुले दिल से व्यक्त करते थे, मेरा अभिप्राय भी पूछते थे, उसी तरह मेरी उम्र जरा बढ़ने के बाद मेरे भाई और भाभियां भी अपनेअपने सुख-दुःख की और अनुभव की बातें मेरे सामने करने लगी और मेरे अभिप्राय की चर्चा भी होने लगी। फलस्वरूप सामान्य संस्कारी हिन्दू घरों के अन्दर वायुमण्डल से और उसमें से उठते प्रश्नों के साथ मेरा अच्छा परिचय हो गया । हिन्दू आदर्श और हिन्दू घर की परिस्थिति दोनों के उत्कट अनुभव के कारण समाज-विज्ञान के शास्त्र में मैं आगे चलकर सहज और उत्तम प्रवेश कर सका।
मेरे बचपन में पिताजी के साथ छोटे-छोटे राज्यों की राजधानियों में रहकर वहां के राजदरबारी वातावरण, राज्य चलाने की पद्धति, राजाओं के बारे में प्रजा के मन में सिखाई हुई मध्यकालीन राजभक्ति,
और सारे वायु मण्डल में गरीबों की दुर्दशा होते हुए भी समाज में कहीं भी असन्तोष या असमाधान नहीं यह सारा देश-दर्शन गहरा था। ठोस था। लेकिन इसके बारे में उन दिनों चिन्तन नहीं चला था। आगे चलकर जब स्वतन्त्रा, समता और बन्धुता के फ्रेंच आदर्श का परिचय हुआ तब अपनी संस्कृति की मध्यकालीन सुन्दरता को भी मैं समझने लगा, मध्यकालीन संस्कृति की कदर भी मैं करने लगा और साथ ही साथ गरीबों की परेशानी से अधिक उनकी अपमानास्पद स्थिति के बारे में मन में चिढ़ भी आने लगी। यह सारा चिन्तन पिताजी के साथ की हुई देशी राज्यों की यात्राओं के कारण ही हो सका।
इस अनुभव का एक दूसरा असर हआ, जो मेरे लिए भी आश्चर्यजनक था।
देशी राज्यों में, राजाओं के जीवन अधिकतर विलासी थे । राजा लोग अपनी रानियों की प्रतिष्ठा को खूब संभालते थे। उनके प्रति आदर भी दिखाते थे, राज-दरबार में उनको मिलने वाली सहूलियतें।और प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आने देते थे, और फिर भी, रानी को सच्चे पति-प्रेम से वंचित रहना पड़ता, और तुच्छ दासियां अथवा चरित्रहीन स्त्रियां राजा के हृदय पर कब्जा जमा लेती इस तरह की बातें सुनने पर मुझे बहुत दुःख होता था।
राज-दरबार में पुरानी तमाम कलाओं की कदर होती थी, कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता था दरबार में उनका स्थान स्थिर रहता, यह सब अच्छा लगता था, किन्तु कला रसिकता के साथ जब अशोभनीय विलासिता दीख पड़ती थी तब मन अस्वस्थ होता था और इस परिस्थिति को कैसे सुधारा जाय, ये विचार भी मन में आने लगे।
देशी राज्यों में आदरणीय मेहमानों की आवभगत भी अच्छी होती है। एक जगह हम गये तब घर के बर्तन मांजने के लिए दरबार की ओर से नियुक्त एक दासी आ पहुंची। उसकी पोशाक और उसके नखरे देखकर मेरी मां ने तुरन्त उसे निकाल दिया और दरबार में कहलाया कि हमें ऐसे किसी नौकर की आवश्यकता नहीं है। मुझे बहुत मजा आया। दरबार के अलग-अलग विभागों में थोड़ी चर्चा भी मैंने सुनी। वे लोग हमारे बारे में आपस में कहते थे, “नये आये हुए ये अधिकारी औरों के जैसे नहीं हैं, कुछ अलग ही लगते हैं।" मेरे पिताजी के सामने घूस या रिश्वत की बात करने की तो किसी की हिम्मत ही नहीं होती थी। सामान्य मेहमान-नवाजी स्वीकारने में पिताजी को कोई आपत्ति नहीं थी, किन्तु सब तरह से कड़ी दृष्टि रखकर किसी अशोभनीय चीज को पास आने ही नहीं देते।
मेरा एक शौक पिताजी ने चलने दिया। रोज शाम को सैर के लिए दरबार से एक घोडागाड़ी भेजी जाती थी, उसमें बैठकर दरबार के किसी कारकून के साथ राजधानी में और उसके आसपास अच्छे-अच्छे स्थान देखने के लिए हम खूब धूमते। एक जगह घोड़े जरा तेजस्वी थे, व्यवस्थापक ने माफी मांगी और कहलाया,
१३२ / समन्वय के साधक