SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "कल अच्छे घोड़े लाएंगे।" मैंने कहलवाया, "नही, नहीं, तेजस्वी घोड़े ही मुझे पसन्द हैं।" क्या करते बेचारे ! मान गये । बिलकुल बचपन में हमारे घर में पिताजी कुलदेव की विधिवत् पूजा करते थे । मन्दिरों में भी भगवान की विधिवत् पूजा चलती थी। मंदिरों में भी भगवान की विधिवत् पूजा चलती थी। वहां पंच पकवान का नैवेद्य, संगीत, नृत्य, कथा-कीर्तन सारा देखकर मेरी धार्मिकता को तुष्टि मिलती । पूज्य व्यक्तियों की जिस तरह से सेवा करते हैं, उसी तरह भगवान की पूजा होती । उसमें मेरी धार्मिकता को तुष्टि मिलती । लेकिन जब मैंने देशी राज्यों के दरबारों का वायुमण्डल देखा तब वहां की कला - विलासिता और खुशामद देखने के बाद मंदिरों की पूजा के बारे में जो मेरा भक्तिभाव था सो टिक नहीं सका । देव भी तो विलासी राजाओं के जैसे ही रहते हैं और देवियों के साथ मौज करते हैं, ये सब मुझे चुभने लगा । फिर मैं सोचने लगा कि हम भगवान का ध्यान करें, यह तो ठीक है, लेकिन पूजा किसलिए करनी चाहिए। भगवान को पसीना तो होता नहीं । उनको स्नान कराने की क्या जरूरत ? पुजारी को यदि पंच पकवानखाने हों तो वह भले ही खायें। भगवान के सामने क्यों वह सारा धरना चाहिए ? इसलिए अब ध्यान तक जाने की मेरी तैयारी है। ध्यान के लिए मूर्ति या छवि अनिवार्य नहीं है, किन्तु उसकी उपयोगिता कुछ लोगों के लिए मान्य हो सकती है लेकिन पूजा तो अब मुझे बच्चों के खेल के जैसी लगती है। देशी राज दरबारों का वायुमण्डल देखने के बाद नये विचारों का प्रारम्भ हुआ । उसके बाद के विचार स्वतंत्र हैं, किन्तु प्रारम्भ की बात यहां लिख दी है । ६ : मेरी पढ़ाई सामान्यतः बच्चों को जब स्कूल भेजते हैं तब वे पढ़ते हैं नाम कमाने की दृष्टि से अच्छे नम्बर मिलें, परीक्षा में पास हो जायं, नीचे की कक्षा में से ऊपर की कक्षा में जाकर बैठ सकें, अपनी प्रगति देखकर सगे-संबंधी और इष्ट मित्र खुश हों और हमारी प्रशंसा करें। इन सारे प्रोत्साहन के कारण विद्यार्थी को उस उम्र में पढ़ने की प्रेरणा मिलती है । इन सारी बातों का मेरे मन पर असर नहीं होता था, ऐसा नहीं है, किन्तु अधिकतर मैं लापरवाह ही रहता था। घर में पढ़ता, अध्यापक हमें जो काम सौंपते उसको अच्छी तरह कर ही लेता, फिर भी मेरी पढ़ाई ज्यादातर शिक्षक कक्षा में जो सिखाते, उसको रसपूर्वक सुनने में ही पूरी होती थी । ध्यानपूर्वक सुनना मुझे अच्छा लगता । गणित के उदाहरण में भी उसी तरह मुझे गणितानन्द मिलता। यही मेरी पढ़ाई की ठीक प्रेरणा थी । एक दिन भाई ने पूछा, "माना कि तुम्हें गणित में रस न आया, और तुम गणित में फेल हो गये, और तुम्हारा एक वर्ष खराब हो गया, तो तुम क्या करोगे ?” मैंने कहा, "तो घर बैठूंगा। किसने कहा है कि पढ़ना ही चाहिए । रस है, इसीलिए तो पढ़ता हूं।" और इसीलिए मैंने कभी इच्छा नहीं की कि मुझे ऊंचा स्थान मिले, स्कॉलरशिप मिले या स्कॉलर के तौर पर मेरी प्रतिष्ठा हो । परीक्षा नजदीक आये तब रुक्ष विषय को भी हाथ में लेकर उसमें रस पैदा करके जैसे-तैसे पास हुआ । गणित के बारे में मुझे कोई मुश्किल नहीं थी । भाषा और गणित दोनों में मुझे रस था । 1 बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा / १३३
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy