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________________ ५: मेरे भाई-बहन हम थे छह भाई । मैं सबसे छोटा था । हमारे बीच में एक ही बहन थी। वह थी नंबर तीन । वह मेरे बचपन में ही गुजर गयी। मैंने उस आक्का के बारे में 'स्मरणयात्रा' में लिखा है । अपने पांचों भाइयों के बारे में मैंने 'स्मरणयात्रा' में कुछ-कुछ लिखा है, इसलिए यहां ज्यादा लिखना जरूरी नहीं, किन्तु एक बात का उल्लेख किये बिना चारा नहीं । मेरा चौथा भाई केशु स्वभाव से उग्र था । प्रेम से मुझे अपनाता भी, और चिढ़ जाये तब मुझसे चुटकी ले और मार भी मारे । उसका स्वभाव मैं समझ सकता था, और उसके प्रति किसी भी हालत में निष्ठा रखने में मैं धन्यता का अनुभव करता था । मेरे स्वभाव की इस खासियत का रहस्य में अभी भी समझ नहीं पाया हूं। भाऊ (केशू) के प्रति मेरी निष्ठा संभालने के लिए मैंने पिताजी के प्रति पुत्र की निष्ठा से भी किनारा किया है। भाऊ के पास से मुझे कुछ भी विशेष मिलता हो, ऐसा भी नहीं था । वह केवल शुद्ध निष्काम आंतरिक निष्ठा ही थी । I चर्चा करने में सबसे बड़े भाई को विशेष रस था । वे थे संस्कृत के विशेष प्रेमी, लेकिन हमारे घर में वेदांत दाखिल किया मेरे दूसरे भाई अण्णा ने । वे वेदांत बहुत पढ़ते थे। उस अतिवाचन के कारण ही वे वेदांत के प्रभाव से मुक्त हुए, ऐसा हम मान सकते हैं । व्यवहार तो वे अच्छी तरह पहचानते थे । बी० ए० होकर नौकरी में गये। अच्छा कमाया। पिताजी से और घर से अलग होने की व्यावहारिक स्वार्थ बुद्धि भी उनमें थी । मेरी माताजी में सामाजिकता ज्यादा थी। घर में आनेवाले अतिथि अभ्यागतों को खिलाना, घर में आनेवाली पुत्रवधुओं को बेटियों की तरह रखना, और इस विषय में समाज के लोगों, खास करके अपनी जाति के लोगों से अपनी प्रशंसा सुननी यह या उनका सबसे बड़ा आनन्द और लोग भी कैसे! मेरी मां की , यह कमजोरी पहचान कर टीका करने लायक कुछ-न-कुछ ढूंढ़ ही निकालते थे मात्र चिढ़ाने के हेतु से, और ऐसा कुछ सुनने में आ जाये तो मां बड़ी दुःखी हो जाती थीं । मेरे पिताजी को अपने परिवार के बाहर किसी चीज में रस नहीं था। भोजन के बाद यदि पान का बीड़ा तैयार करके उन्हें दिया तो जल्दी के कारण, जेब में रख देते थे और कभी उसे खाना भूल भी जाते थे । मुझसे बड़ा भाई गोविन्द, बचपन में बीमार रहता था । इसलिए वह मां के पास सोता था और मैं पिताजी के बिस्तर में, उनकी पीठ की तरफ अपनी पीठ करके सोता था। पुत्र का मुख्यधर्म है मां-बाप की सेवा, छुटपन से यह मैं जानता था इसलिए दोनों की सेवा करने में मुझे अखंड आनंद और धन्यता का अनुभव होता था। इस कारण से, और सबसे छोटा होने के कारण भी मुझे माता-पिता दोनों का प्रचुर प्रेम मिलता रहा। पिताजी को प्रेम के शब्द बोलने की आदत न होने से शाब्दिक प्रेम की मुझे जरूरत ही नहीं पड़ी। पिताजी का सहवास भी सबसे ज्यादा मुझको मिला। आगे चलकर अपने सुख-दुःख की बातें भी, पिताजी बिना किसी संकोच के मेरे साथ करते थे और जब मैं बड़ा हुआ तब मेरी सलाह भी लेते थे। इस धन्यता के कारण मुझे असाधारण पोषण मिलता रहता था । मेरे भाई सब पढ़ाई के लिए पुणे जाकर रहे थे । कुछ दिन मेरी मां भी, अपनी बहुओं को लेकर, उन बेटों के लिए पुणे जाकर रही थीं। उस समय मैं भी वहीं था । नौकरी के लिए पिताजी को नये-नये स्थान पर रहना पड़ता । तब माता-पिता के साथ मैं अकेला ही रह जाता। नयी जगह जाने पर मां की सेवा तो मैं ही करता था। मां को स्नान करने में मदद करता, और उनके बाल बना देता । कई बार मां कहतीं, "दत्तू तो मेरा बेटा नहीं, बेटी ही है । " बढ़ते कदम जीवन-यात्रा / १२१
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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