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ही गया। इसीलिए मन में विचार उठा कि कुदरत की व्यवस्था में दखल देने से कोई लाभ है क्या ? अगर मैं बिल्ले को समझा सकता कि बच्चे को नहीं मारना चाहिए तो बात अलग थी। बिल्ला.चूहे को खाय, यह समझ में आने लायक बात है। यह उसका भोजन है। परन्तु वह बिल्ली के बच्चे को खाता नहीं, मारकर फेंक देता है, तो फिर वह मारता किसलिए होगा ? प्रकृति ने उसे जो यह वृत्ति दी है उसके पीछे क्या हेतु होगा? इस प्रकार के विचार करता-करता मैं परेशान हो उठा। कोई ठीक जवाब नहीं मिला, इसीलिए समय-समय पर ये विचार उठते ही रहे। जीवन और मरण प्रकृति का खेल है। चहा हमें सताता है, इसलिए हम घर में बिल्ली पालते हैं। बिल्ली जब चूहे को खाती है तो हम दिल की भूतदया को भोथरी करके खुश होते हैं । वही बिल्ली जब अपने बच्चे को मारती है तो हम अनाथ की सहायता को दौड़ पड़ते हैं, और जब वह पक्षी को मारती है तो हमारे काव्यात्मा का हनन होता है, और जब वह बिल्ली मनुष्य के बच्चों को नाखून मारती है तब-? मेरे पिताजी जब बहुत छोटे थे तब एक दिन पालने पर एक बिल्ली ने झपटकर उनकी नाक और गाल के बीच के भाग में, आंख के नीचे, पंजा मार दिया था। उसकी निशानी उनके मुख पर सारी जिन्दगी रही। उसीसे मेरे विचारों ने यह दिशा पकड़ी थी।
कोचरब (अहमदाबाद) के सत्याग्रह आश्रम की बात है। स्वामी सत्यदेव आश्रम के मेहमान थे। रात होने पर दीये के आसपास कीड़े इकट्ठे हो जाते थे। बहुत से गंधाते भी थे। इन कीड़ों को खाने के लिए छिपकलियां आती थीं। कीड़ों को बचाने के लिए हम छिपकलियों को भगा देते थे। सत्यदेव को यह ठीक नहीं लगता था। वे कहते, "छिपकली कीड़ों को पकड़ती है तो उसे देखने में कितना मजा आता है।" एक बार उनकी खड़ाऊं के नीचे दबकर एक छिपकली मर गयी तो उन्हें दुःख हुआ-जीवहत्या का नहीं, लेकिन उपयोगी छिपकली के मर जाने का !
किसी ने सारी बात बापूजी से कही और जीवों को बचाने की चर्चा छेड़ दी। बापूजी ने जो जवाब दिया, उसके लिए मैं तैयार नहीं था। उन्होंने कहा, "सभी प्राणियों को बचाने का हमारा धर्म नहीं है। छिपकली कीड़ों को खाती है, यह क्या इससे पहले मैंने कभी नहीं देखा ? छिपकली अपनी खुराक ढूंढ़ती है इसमेंअर्थात् प्राकृतिक व्यवस्था में दखल देने का मैंने अपना कर्तव्य नहीं माना। इन जानवरों को हम स्वार्थ के लिए या शौक के लिए पालते हैं उनको बचाने का धर्म हमने अपने ऊपर लिया है इससे आगे जाना हमारे लिए संभव नहीं है।" .
बापूजी के इस जवाब पर हमने आपस में खूब चर्चा की। किशोरलालभाई ने फैसला दिया, "मन तटस्थ अथवा उदासीन हो, तब बचाने का प्रयत्न न किया जाये। जीव को बचाने की वृत्ति जाग्रत हो, दयाभाव उमड़े, तब उसे दबाने की अपेक्षा जीव को बचाने का यत्न करना ही अच्छा है।" किशोरलालभाई की वत्ति मेरे जीवन-सिद्धान्तों के साथ मेल खाती थी, इसलिए उनका निर्णय स्वीकार करके मैं शान्त हो गया। उसके बाद जीवों के सवाल ने मन में किसी भी प्रकार की अस्वस्थता पैदा नहीं की। बचपन से जाग्रत हआ जीवास्था और जीवदया का यह सवाल इस प्रकार शांत हुआ। हल हुआ, ऐसा कहने का मन नहीं होता।
१३० / समन्वय के साधक