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________________ में विकसित हुआ और वह भी बिना सिखाये । स्वयं मां ने मुझे मातृभक्ति की शिक्षा कभी एक शब्द द्वारा भी नहीं दी। जब मैं पिता का पक्ष लेता तो कभी-कभी वे कहती, "आखिर तू भी उनका ही पक्ष लेता है। मेरी लड़की होती तो ऐसा न करती।" मैंने निश्चय कर लिया कि मैं तो मां की लड़की ही बनूंगा। वैसा मैंने किया, परन्तु जब पिताजी और मां के बीच मतभेद होता तब तो मैं पिताजी के ही पक्ष में रहता । उसमें लड़की बनने की बात मुझे कभी नहीं सूझी। ४. जीवदया मन में एक मंथन चल रहा था कि प्राणियों को मरने से बचाना चाहिए या नहीं, और यदि यह निश्चय हो जाय कि बचाना चाहिए और बाद में बचाना ही एक धन्धा बन बैठे तो क्या किया जाय? ऐसे ही समय हमारे बेलगुंदी के घर में एक बिल्ली ने बच्चे जने । उसके बच्चों को ले-लेकर हम लोग खूब खेलते थे। एक दिन कहीं से एक बड़ा बिल्ला हमारी कोठरी में घुस आया और उसने एकदम झपटकर हमारी बिल्ली के एक बच्चे को पकड़ लिया। मैंने उसे एक लाठी मारी, मगर फिर भी वह बच्चे को ले ही गया। मैं दुःखी और अवाक् होकर वहीं खड़ा रहा। परन्तु हमारे नारायण मामा बड़े जोशीले थे। उन्होंने चिल्लाकर मुझसे कहा, "दत्तू, दौड़। इस बच्चे को हम अभी भी बचायें।" मैं उठं इसके पहले ही उन्होंने बिल्ले का पीछा किया और इधर-उधर दौड़कर उसे घेर लिया। बिल्ले ने बच्चे को छोड़ दिया और खुद अपनी जान लेकर भाग गया। बिल्ला सिर्फ अपने प्राण बचाकर भाग गया होता तो कोई हर्ज नहीं था, परन्तु उसने बच्चे को छोड़ने के पहले उसकी गरदन पर इतने जोर से काट लिया था कि वह लगभग निष्प्राण हो गया। मामा ने उसे जिलाने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु कोई आधा घंटा वेदना भोगकर वह मार्जारों के वैकुंठलोक को प्रयाण कर गया। मामा उठे तब मैंने मन-ही-मन अपने आपको तरह-तरह से धिक्कारा । मामा का रजोगुण कैसा समर्थ है कि उन्होंने बिल्ले का पीछा किया, बच्चे को बचाने के लिए इतना कष्ट उठाया ! मैं तो जहां-का-तहां बैठा रहा। मामा चिल्लाये तो मैं दौड़ा जरूर और बिल्ले को पकड़ने में मदद भी थी, परन्तु वह मेरी स्वयं-भू प्रेरणा थोड़े ही थी! __ बाद में जब बच्चा मर गया तो दूसरे ढंग से विचार चलने लगे। बच्चे की आखिरी चीख सुनते ही मुझे रामा की 'चान्नी याद आ गई। इस बच्चे को बचाने का प्रयत्न करके हमने क्या पाया ? बच्चा तो मर १ कोंकणी भाषा में 'चान्नी' गिलहरी को कहते हैं । रामा लेखक महोदय के ममेरे भाई का नाम था । जब सभी बच्चे थे, एक दिन उसने एक गिलहरी पकड़ी और घर के सब बच्चे उसे घेरकर उसके उछलने-कूदने का आनन्द लेने लगे। गिलहरी जिधर से निकलने का प्रयत्न करती, उधर ही किसी-न-किसी को खड़ा देखकर लौट पड़ती। इस प्रकार वह घेरे के बीच में ही उछलती-कूदती रही। सब बच्चों को जब इसमें खूब आनन्द आ रहा था, ठीक उसी समय एक चील झपट्टा मारकर गिलहरी को उठा ले गयी । उस समय गिलहरी ने मर्मवेधी चीख निकाली. उसने उस बालवय में लेखक के हृदय पर गहरा आघात किया। बाद में चील उसे लेकर एक ऊंचे वृक्ष की फुनगियों पर जा बैठी और उसे काट काटकर खा गई । सब लोग असहाय होकर उस दृश्य को मार्मिक वेदना के साथ देखते रहे । उस दृश्य ने लेखक के हृदय के घाव को स्थायी बना दिया । -अनु. बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १२९
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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