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________________ इसी बीच बाहर एक स्त्री अच्छी-अच्छी ककड़ी बेचने आयी । कोमल, कुरकुरी ककड़ी देखकर मन में आया कि यदि पिताजी को ऐसी ककड़ी खाने को मिले तो अन्दर से ठंडक पहुंचेगी, शान्ति मिलेगी। मैं इतना बड़ा नहीं था कि अपने मन से ककड़ी खरीद लेता। मैंने पिताजी को जगाया । गहरी नींद से जागने के कारण वे नाराज हुए। उनींदे ही बोले, "कैसा कसाई है तू, जरा सोने भी नहीं देता !" मेरे दिल को बड़ी चोट पहुंची। क्या करने गया था और क्या हो गया ! मुंह से एक शब्द भी न निकला। उदास होकर खड़ा देखता रह गया। बाद में उन्होंने देखा कि अच्छी ककड़ियां आई हैं। उन्होंने प्रसन्नता से उन्हें खरीदा। चाकू निकालकर उन्हें काटा, उनपर नमक बुरककर और निचोकर उनका कुछ पानी निकाल दिया और पहला टकड़ा मुझे दिया। मैंने कहा, "नहीं, पहला टकड़ा आप खाइये।" पिताजी ने कहा, "नहीं, तू खा।" जगाने के बाद वे वस्तुस्थिति समझ गये थे। मेरा उतरा हुआ चेहरा भी उन्होंने देखा था। मुझसे पहले खाने का उनका आग्रह अपनी भूल स्वीकार करने का एक तरीका था। मैं अपनी जिद पर कायम रहा । उन्होंने ककड़ी खा ली। मां के हिस्से की ककड़ी मैंने ले जाकर उन्हें दी। इसके बाद ही मैंने ककड़ी खाई। उस दिन अपने हिस्से की ककड़ी माता-पिता के खाने के बाद खाने में मुझे जो आनन्द हुआ, वह भी मेरा एक धर्मानुभव ही था। मां को मेरी इस प्रकार की वृत्ति बहुत अच्छी लगती थी। वे बड़ी प्रसन्न होती थीं। मां मुझे हमेशा शिक्षा दिया करती थीं कि जिस तरह लक्ष्मण ने राम की सेवा की थी, उसी तरह तू भी बड़े भाइयों के कहने में रहना। लक्ष्मण के तो एक ही बड़े भाई थे। मेरे हिस्से में पांच थे, और वे सब राम नहीं थे। वे मेरी लक्ष्मण-वृत्ति का खूब लाभ उठाते थे और फिर मुझसे झगड़ते और मुझे मारते थे, सो अलग। मैं अपना यह धर्म समझता था कि वे मुझे मारें और डाटे-फटकारें तो भी उनके प्रति मेरे प्रेम में कोई कमी नहीं आनी चाहिए, और मैंने अपने इस धर्म को बहुत हद तक निभाया। गोंदू की उम्र लगभग मेरी जितनी ही थी और हम दोनों एक-दूसरे के साथी थे, इसलिए वह मेरे ऊपर बड़े भाई के रूप में रौब नहीं दिखा सकता था। मुझे बहुत सहना पड़ा भाऊ (केशू) के हाथों। वह लहरी, मौजी और शीघ्रकोपी था । अपनी इच्छाओं का दास था। उसके हाथों मैंने बहुत मार खायी और आश्चर्य यह कि उस पर ही मेरी भक्ति अधिक रही। उस समय मुझे ऐसा लगता था कि मैं आदर्श बन्धु-प्रेम के संस्कार प्राप्त कर रहा हूं। आज मैं समझता हूं कि वह एक प्रकार की विकृति थी और गुलामी की वृत्ति का रूप धारण कर रही थी। केशू से विष्णु उम्र में थोड़ा बड़ा था, परन्तु उसके प्रति भाऊ ने लक्ष्मण-वृत्ति नहीं सीखी थी। भाऊ उसकी निन्दा करता था और मुझे भी उस निन्दा में शामिल होने के लिए न्योता देता था। मैं परेशानी में पड़ जाता था, परन्तु करता वही था, जो भाऊ कहता था। पितृभक्ति और ज्येष्ठबन्धु-भक्ति मैंने अपनी मां से सीखी, परन्तु मातृभक्ति तो मुझे किसी ने सिखाई ही नहीं। माता को हमेशा 'तू' कहकर पुकारा जाये, जिस चीज की इच्छा हो वह हठपूर्वक मांग ली जाय, अनेक प्रकार से उन्हें सताया जाय, पिताजी मां को डांट-फटकारें तो निरपवाद रूप से पिता का पक्ष लिया जाय और इस प्रकार मां को और भी दुःखी किया जाय-ऐसी स्थिति में माता के प्रति भक्ति का वातावरण कैसे पैदा होता? परन्तु यदि मां को जरा-सा भी दुःख होता तो मैं अन्दर-ही-अन्दर इतना व्याकुल हो जाता, मानो अधमरा हो गया होऊं। माता की सेवा करते हुए मुझे असाधारण आनन्द मिलता था । जब मां अपने सुख-दुःख की बातें मुझे सुनाती तब तो मैं गल-सा जाता, पिघल उठता। उनके प्रति भक्ति नहीं, उत्कट प्रेम ही मेरे हृदय १२८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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