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३ :: मां का सिखाया कुटुम्ब-धर्म
मेरी मां ने जिस प्रकार मुझे मेरा धर्म दिया, उसी प्रकार स्पष्ट शब्दों में कुटुम्बियों के प्रति मेरा धर्म भी मुझे सिखाया ।
पुत्र का पिता के प्रति क्या धर्म है, यह तो वे अनेक बार मुझे समझाया करती थीं। प्रसंग के अनुसार, एक-एक करके, ये सब बातें मैंने मां के मुंह से सुनी थीं। पिताजी अपने सुख या आराम का कोई विचार किये बिना दिन-रात जो यह सब मेहनत करते हैं, कमाया हुआ धन अपने लिए जरा सा भी खर्च किए बिना हमारे लिए खर्च करते हैं, हमारी शिक्षा-दीक्षा की इतनी अधिक चिन्ता रखते हैं, हमारे बीमार होने पर जागते बैठे रहते हैं, हमारी प्रगति से संतोष का अनुभव करते हैं और समाज में हमारे लिए स्थान बना देते हैं, यह सब उनका प्रेम है, उनका उपकार है । इसलिए हमें उनकी सेवा करनी चाहिए, उनकी आज्ञा माननी चाहिये, उन्हें जिससे सन्तोष हो, वैसा वर्ताव करना चाहिए। मां के वचन मेरे लिए हमेशा ही प्रमाण होते थे, इसलिए यह सब सहज ही मेरे गले उतर जाता था । परन्तु इन सब वचनों का मुझ पर जो गहरा असर होता, वह इस लिए कि मेरे पिताजी के प्रति मेरी मां की भक्ति बहुत गहरी थी।
माता-पिता का परस्पर सम्बन्ध पति-पत्नी का होता है, यह उस समय मेरे ध्यान में नहीं आया था, और यह भी मेरे ध्यान में आने का कोई कारण नहीं था कि मेरे पिता के प्रति मां की भक्ति विशुद्ध प्रेम ही है।
एक दिन मैं अपनी मां के साथ एक बगीचे में घूम रहा था। वहां एक असाधारण सुन्दर, खुशबूदार और ताजा गुलाब का फूल देखकर मेरी मां का मन ललचा उठा। उन्होंने उसे तोड़कर हल्के से अंगुलियों में पकड़ लिया और जहां पिताजी बैठे थे, वहां जाकर उन्हें दे दिया। इतनी भक्ति से दिया कि उनकी आंखों में उस भक्ति के तेज को असाधारण रूप से प्रकट होते मैंने देखा । पिताजी ने प्रसन्न होकर वह फूल लेकर उसे सूंघ लिया। मां धन्य धन्य हो गयीं और बाली हाथ वापस लौटीं खाली हाथ इसलिए कहता हूं कि मां ने इस स्पष्ट भाव से अपना हाथ लटकता हुआ रखा था कि जो कुछ मेरे पास देने को था, वह सब दे दिया। मेरा ध्यान उसकी ओर तुरन्त गया। वापस लौटते हुए मां ने मुझसे कहा, "गुलाब का फूल उन्हें बहुत अच्छा लगता है ।" इतनी बात कहे बिना मां से रहा नहीं गया, यह भी मैंने देखा ।
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उस दिन से मैं पिताजी की सेवा और भी अधिक प्रेमपूर्वक करने लगा। पिताजी की कोई छोटी-सी भी सेवा करने का अवसर मिलता तो मैं भी धन्यता का अनुभव करने लगता ।
एक दिन मुझे बहुत दुःखद अनुभव हुआ ।
पिताजी की बदली हो गई। हम कारवार गये। समुद्र के किनारे का गर्म प्रदेश था। बेलगाम सतारा की ओर की ठंडी और सूखी हवा में पले हुए हम लोग कारवार की गीली गर्मी से बर्फ के सम्मान पिघलने लगे। सब लोग यही सोचते रहते कि दोपहर कब समाप्त हो और कब सायंकाल की ठंडी हवा मिले । पानी से भरा लोटा रूमाल से मुंह बांधकर उलटा टांग देने की रीति किसी ने बता दी थी, इसी से ठंडे-से ठंडा पानी पीने को मिल जाता था; पर जितना पानी पीते थे, उतना पसीने के रूप में बाहर निकल जाता था ।
रविवार का दिन था। भोजन करने के बाद पिताजी चटाई पर सो रहे थे। हनुमान जिस तरह रामचन्द्र की भक्ति करते थे, उसी प्रकार मैं खड़ा पिताजी पर पंखा झल रहा था। पंखा झलते-झलते मैं थक गया । खड़े-खड़े मेरे पैर दुःख गये। पंखा चलाते चलाते हाथ तो थक गया था, परन्तु मेरी भक्ति नहीं थकी थी। पंखा झलता जा रहा था और सोये हुए पिताजी की गहरी सांस सुन-सुनकर संतोष पा रहा था ।
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा / १२७