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पर एक नारियल रहता, उसकी कुदरती दो आंखें और मूंछ के नीचे छिपा हुआ मुख यह सब देखकर भगवान के सिर की कल्पना आती थी। दो आंखों के बीच का सहज ऊपर के भाग को कपाल समझकर उसपर हम चन्दन का तिलक करते थे। उसपर थोड़ा कुमकुम छिड़कते दूध, दही, मक्खन, चीनी का शवंत इत्यादि से मूर्तियों को पंचामृत स्नान करवाते। मेरे पिताश्री वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते जाते, कंठस्थ की हुई संस्कृत की पौराणिक रचनाएं भी बोलते जाते, और साथ में पूजा भी करते जाते थे । मेरा यज्ञोपवीत नहीं हुआ था, फिर भी पिताश्री के पास निर्वस्त्र बैठकर मूर्ति-पूजा में मैं पिताश्री की मदद करता था। पंचामृत स्नान के पश्चात् शुद्धोदक से स्नान करवाना, फिर शुद्ध पवित्र कपड़ों से मूर्तियों को पोंछ लेना, उनकी पूजा पूरी करके नैवेद्य चढ़ाना इत्यादि सभी कार्यों में मैं पिताश्री की मदद करता रहता था। घर में मैं सबसे छोटा था मुझे इस तरह भक्तिपूर्वक भगवान की पूजा में मदद करता देखकर छोटे-बड़े सभी मेरी कदर करते थे। कदर के शब्द सुनकर मैं खुश होता था। मां कहती थी, "इसके बड़े भाई स्कूल जाकर नास्तिक होने लगे हैं, अपना छोटा दत्तू कैसी सुन्दर पूजा करता है। आगे जाकर न जाने क्या-क्या करेगा।"
पूजा के बाद मैं पूजा के नारियल की आंखों में देखता कि भगवान् मेरी पूजा से प्रसन्न हैं, या नहीं ? न जाने किस तरह से बहुत बार तो नारियल की आंखों में प्रसन्नता दीख पड़ती, किन्तु कभी-कभी जरा नाराज हुए हैं, अथवा चिन्तित हैं, ऐसी मन पर छाप पड़ती थी, और फिर सारे दिन की घटनाएं याद करके, मैंने क्या गलती की, क्या बिगाड़ा इसका विचार बाल- बुद्धि के अनुसार करता रहता था ।
उन दिनों तो यह सब बाल-मानस का खेल था । आज देखता हूं, कि अन्तर्मुख होकर अपने आचरण और विचारों पर धर्म-बुद्धि चलाकर आत्म-परीक्षण करने की, एक तरह की साधना का, यह शुभारम्भ ही था । जब मैं बहुत छोटा था, रेलें नई-नई शुरू हुई थीं। उससे पहले बैलगाड़ी में बैठकर सातारा से बेलगांव तक हम गये थे और रास्ते में एक नदी के किनारे दोपहर की रसोई करने के लिए रुके थे। इतने में मां ने कहा, "देखो, इस नदी के प्रवाह में कितने सारे बुलबुले पैदा होकर बहते रहते हैं। यह नदी मासिक धर्म में है । इसलिए इसका पानी इस समय नहीं पीना चाहिए न इसे रसोई में लेना चाहिए। एक पड़ाव आगे चलकर वहीं पकायेंगे और भोजन करेंगे ।"
में
बाल-मानस इसे क्या समझता ? नदी का पानी बिगड़ा है, इतना ही मैं समझ सका । बड़े होने के बाद इस पुराने प्रसंग को यादकर, मन में शंका आयी, नदियों को भी क्या मासिक धर्म हो सकता है ? नदी का पानी बिगड़ा हो, उसे काम में न लिया जाये, यह तो समझनेवाली बात थी। किन्तु मनुष्य जाति के बाल्यकाल में बुद्धि से कल्पना-शक्ति अधिक काम करती है। और उसमें से कितनी ही धर्म भावनायें जागती हैं । मूल: होती है, लोक-धर्म की भावना बाद में उसको तोड़-मरोड़ कर भी लोग उस शास्त्र का आधार बैठा देते हैं। रेलगाड़ी जब नई-नई थी, तब लोग इंजिन पर फूल चढ़ाते थे, कुछ नारियल को इंजिन पर चढ़ाते और रेल के डिब्बे में हर तरह के लोग बैठते हैं, इसलिए कई लोग रेल में कुछ नहीं खाते थे। चंद लोग बांस या बेंत की छोटी-सी पेटी में खाना रखकर, ऊनी वस्त्र उस पर लपेटकर साथ रख लेते थे। स्टेशन आने पर नीचे उतर जमीन पर बैठ खाना खाते, नल से पानी पीते, फिर डिब्बे में बैठ जाते थे।
उस जमाने में रेल के डिब्बे में शौच जाने की सुविधा नहीं थी। स्टेशन आने पर लोग उतरकर शौच
जाते ।
१२६ / समन्वय के साधक