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२:: बचपन के संस्मरण
छुटपन के संस्मरणों में से दो-तीन यहां देने को जी चाहता है। मेरी मां घर की नौकरानी को साथ लेकर, अथवा अकेली-अकेली आटा पीस रही है और मैं उसकी गोद में सिर रखकर जमीन पर टांगें फैलाकर मां के गीत सुनता रहता हूं। ऐसा चित्र याद आता है। नौकरानी के साथ मालकिन पीसने को बैठ जाय, इसमें उन दिनों किसीको कुछ बुरा नहीं लगता था। बड़प्पन का ख्याल और मध्यमवर्ग के लोग हाथ से मेहनत न करे, ऐसा गलत विचार उस जमाने में लोगों में घुसा नहीं था। पीसने की गति के साथ गीतों का संगीत एक हो जाता था। उसके प्रभाव में लेटे-लेटे सुनने का विशिष्ट आनन्द न मिला होता तो यह संस्मरण टिक न पाता।
कभी-कभी मेरी दादी के साथ मैं गली के सिरे पर स्थित हनुमान मन्दिर तक जाता। दादी मन्दिर में पुराण सुनने बैठती। अपने राम मन्दिर के आसपास खेलते रहते । बीच-बीच में दादीजी मुझे आवाज देकर विश्वास कर लेती थीं कि मैं कहीं दूर तो नहीं गया हूं। यह भी एक मजेदार संस्मरण है।
तीसरा संस्मरण यह है।
शाम होते ही सरकारी अधिकारियों की पत्नियां सज-धजकर देव-दर्शन के लिए मन्दिर को जाती, तब हम बच्चे भी साथ जाते थे। यह मन्दिर हनुमान मन्दिर जैसा छोटा नहीं था। पुरोहित आगे आकर भगवान का प्रसाद और चरणामृत देते। छोटे-बड़े सब उसे लेकर मुख पर धन्यता दिखाते, ऐसा स्पष्ट चित्रात्मक संस्मरण मन में आता है।
मैंने एक बार मां से पूछा, "आई, आप मन्दिर जाती हैं, तब अच्छे-अच्छे गहने क्यों पहनती हैं ? और मन्दिर का रास्ता मालूम होते हुए भी चपरासी को साथ क्यों लेती हैं ?" मेरा सवाल सुनकर पहले तोवे मुक्तकण्ठ से हंस पड़ीं। फिर बोली, "दत्त, देखो, हम अच्छे बड़े मकान में रहते हैं । घर में नौकर-चाकर हैं, यह सारा वैभव भगवान की कृपा से ही तो हमें मिला है। मन्दिर को जाते हैं, तब अच्छे कपड़े पहनते हैं, कीमती गहने पहन लेते हैं और भगवान को सारा दिखाकर कहते हैं कि 'देव-बापा, यह सारी तेरी ही कृपा है। आनन्द से रहते हैं. तमने बच्चे दिये, सुख-समृद्धि दी, और वैभव दिया, यह तेरी ही कृपा है। भगवान हमारे हाथों गरीबों का भला होने दो। सभी के आशीर्वाद हम प्राप्त करें, और कभी भी तुझे न भूलें।"
'प्रदर्शन भगवान के सामने करके प्रतिष्ठा और वैभव के लिए भगवान का उपकार मानना चाहिए।' ऐसी-ऐसी बातें करके मां ने अपना समर्थन किया। मेरे लिए तो यह जीवन की पहली दीक्षा सिद्ध हुई। मन्दिर में एकत्र होनेवाले लोग अधिकतर विभिन्न प्रकार की मांगें करते हैं, यह सारा मैंने सुना था। मां के कहने में भगवान के पास से कुछ मांगने की बात नहीं, किन्तु भगवान की कृपा को यादकर, उसका इकरार करने की बात है। यह भेद बहुत वर्षों के बाद मन में स्पष्ट हुआ । लेकिन मन्दिर में जाकर भगवान के उपकार को याद कर उसका स्वीकार करने की बात मेरे मन में जम गयी।
हमारे घर में दोपहर की रसोई का काम ज्यादातर मेरी दादीजी करती थीं। पकाए हुए दाल, भात, सब्जी सारी रसोई भगवान को नैवेद्य के रूप में अर्पित की जाती थी। इसलिए उसमें प्याज या लहसून का निषेध था।
मेरे पिताश्री नौ बजे के आसपास स्नान करके पूजा में बैठ जाते । पूजा के कमरे में जिसे 'देवघर' कहते थे, देव-देवियों की छोटी-छोटी मूर्तियां, शिवजी के स्थान पर लिंग जैसे गोल पत्थर, जिसे बाण कहते हैं, गणपति के लिए लाल पत्थर, सूर्य नारायण के लिए स्फटिक जैसा पत्थर, देवी के लिए सोनामुखी धातु का टुकड़ा इत्यादि तरह-तरह की चीजें रहती थीं। ठीक बीच में मंगेश महारुद्र (शिवजी) के स्थान पर लकड़ी के आसन
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १२५