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उज्ज्वल और मंगलमय जीवन के लिए अपने कुलदेवता को प्रसन्न करना उन्होंने अपना धर्म समझा । वे व्रत, उपवास, पूजा, उपासना करती रहीं। हृदय में सुखी दाम्पत्य-जीवन की मनोकामना थी और साथ ही गृहजीवन के मंगल-स्वप्न भी थे। उन्हें अपने पति की बुद्धि और सूझ-बूझ पर अभिमान था अतः कालेज के उनके तेजस्वी जीवन को देखते हुए पति से उनके विरह का समय बहुत जल्दी से कटता जा रहा था। अपने आपको भी पति की सच्ची अर्धांगिनी बनाने के लिए वे तैयार कर रही थीं ।
किसी ने सच ही तो कहा है कि हरेक महान पुरुष के जीवन के पीछे नारी का हाथ सदा ही रहा है । फिर भी महान पति की सहधर्मचारिणी के भाग्य में गृहजीवन के मांगल्य की स्थिति बहुत कम दिखाई देती है। पति की महानता के लिए नारी को अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना पड़ता है, फिर चाहे वह सीता हो, भामिनी हो, कस्तूरबा हो, या लक्ष्मीबाई हो । काकासाहेब अपने विद्याभ्यास की समाप्ति के बाद न तो वकील बने न बेरिस्टर। उनके समक्ष समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त करने के बहुत प्रलोभन थे, पर वे सब कुछ छोड़कर बने मातृभूमि से एक स्वातंत्र्य सेनानी वे सच्चे देशभक्त थे। तत्कालीन क्रांतिकारी विचारों ने उनको बहुत प्रभावित किया। जबतक देश स्वतंत्र न हो तबतक जीवन में चैन कहां था उन्हें ! देश की खातिर सब कुछ न्योछावर करने को वे तैयार थे। उस भावना के प्राधान्य के कारण उनके गृहजीवन में स्नेह, सुख और माधुर्य को बहुत अवकाश नहीं मिला। काकासाहेब ने अपनी धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई को भी देशभक्ति की ओर आकर्षित किया और लक्ष्मीबाई सच्चे अर्थ में पति की सहधर्मचारिणी बन गईं। अपने प्यारे वतन के स्वातंत्र्य के स्वप्नों ने उनके अपने जीवन के स्वप्नों का स्थान ले लिया ।
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काकासाहेब बेलगांव की राष्ट्रीय शाला के आचार्य बने केवल सिद्धान्त की खातिर जब सबके मन एक न हो पाये तब उन्होंने संस्था छोड़ दी और जन्मभूमि से दूर गुजरात राज्य में गंगनाथ विद्यालय के आचार्य पद को स्वीकार किया। कुछ अरसे के बाद अपने प्रिय वतन, परिवार, स्नेहीजन सबको छोड़कर बिना हिचकिचाए लक्ष्मीबाई अपने पति के साथ गुजरात आ पहुंचीं। वहां भी अपने अप्रतिम स्नेह से अनजान प्रदेश के लोगों को अपने ही परिवार में सम्मिलित कर दिया। इस तरह से वे सबकी 'स्नेहमयी काकी' बन गई। फिर भी गृहस्थ जीवन के सुख और स्थिरता उनके भाग्य में नहीं बदे थे । वे चाहती थीं कि अपने विद्वान पति के साथ चैन से जीवन व्यतीत करें और जब उन्होंने अपने स्वप्न को साकार बनता हुआ पाया तो देखा कि गंगनाथ विद्यालय बंद होने से काकासाहेब अपनी पत्नी को दो साल के पुत्र के साथ अपने वतन में छोड़कर हिमालय की ओर चल दिये ।
arat के लिए फिर से बिना पति के सहारे के रहने का कठिन काल शुरू हुआ। काकासाहेब संन्यास ग्रहण करने की एकमात्र मनोकामना से हिमालय की ओर गये थे। वहां उन्होंने शक्ति की उपासना की, क्योंकि उन्हें भारतमाता की मुक्ति का वरदान पाना था । यद्यपि उनके इस परिव्राजक स्थिति में उनका कोई पता नहीं था, फिर भी लक्ष्मीबाई की अपने पति में अचल श्रद्धा बनी रही। एक दिन उनके पति अवश्य घर लौटेंगे, यह उनका दृढ़ विश्वास था। ईश्वर में तो उनकी आस्था थी ही। उन्होंने अत्यंत उग्र तपश्चर्या आरंभ की। व्रत, उपवास और जागरण में वह व्यस्त रहने लगीं। सोमवार को भगवान आशुतोष की प्रसन्नता के लिए उपवास करतीं। मंगलवार को देवी का उपवास और बृहस्पतिवार को दत्त भगवान की उपासना के लिए वे अन्न नहीं लेती थीं। शुक्रवार को लक्ष्मी की उपासना का उपवास करतीं और शनिवार को हनुमानजी का सहारा लेतीं। इस प्रकार सप्ताह में पांच दिन उपवास करती थीं। व्यवस्थित भोजन तो दो ही दिन लेती थीं। इस प्रकार का कठिन व्रत उन्होंने तीन साल तक किया, और उसी तप के प्रभाव से काकासाहेब को घर वापस लौटना ही पड़ा। लक्ष्मीबाई को पति को पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई पर कठिन तपश्चर्या के कारण उनके शरीर
१०६ / समन्वय के साधक