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पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा। दो छोटे-प्यारे बच्चे, जो सदा ही पिता की याद करते रहते थे, उनको पालनापोसना, लोगों के प्रतिघोष के सामने अकेले ही लड़ना, पति के लिए लोगों के व्यंग्यबाण सहना और साथ ही स्वधर्म से च्युत न होना; व्रत, संयम, नियम, आचार सब नियमित करके पति के वापस लौटने की अहर्निश प्रार्थना करना और परिवार-जन के साथ एक परिव्राजक पति की पत्नी बनकर रहना, यह उस जमाने में आसान काम न था। फिर भी लक्ष्मीबाई अपने धर्म से च्युत न होकर धरती की तरह धैर्य से चुपचाप सब कुछ सहती रहीं और परिणामस्वरूप उनके पति उनसे आ मिले।
हिमालय से लौटते ही काकासाहेब पूज्य गांधीजी के अंतेवासी बन गए। समग्र देश में स्वातंत्र्य-यज्ञ की ज्वालाएं फैल चुकी थीं। गांधीजी ने अहमदाबाद में साबरमती आश्रम की स्थापना की। राष्ट्रीय शाला की स्थापना हुई। काकासाहेब उसके आचार्य बने । उन्होंने अपने परिवार के साथ आश्रम में ही रहने की व्यवस्था कर ली। प्रारंभ में तो आश्रम में रहने के लिए कोई व्यवस्थित मकान नहीं थे। तंबू में रहना पड़ता था और उन्होंने अनेक असुविधाओं के बीच रहना शुरू कर ही दिया । काकी ने कभी अपने मुंह से इसकी फरियाद नहीं की। वे हरेक कठिनाई और असविधा हंसते-हंसते सहती रहीं। फिर भी अपने पति के प्रत्येक कार्य में वे बिना विचार किये सहयोग देना स्वीकार नहीं करती थीं। उनके अपने विचार थे। उनका अपना जीने का ढंग था। वे सत्यप्रिय, स्पष्ट-वक्ता और निडर थीं। जो सच लगे, वही बोलना और करना, यह तो उनको पति ने स्वयं विवाहित जीवन के प्रारंभ में ही सिखाया था। अपने विचार और निश्चय पति के और स्वयं गांधीजी के समक्ष भी बिना हिचकिचाट से रख सकती थीं। गांधीजी के साथ वार्तालाप करने का मौका जब भी उन्हें मिलता तो महादेवभाई देसाई उनके दुभाषिये बनते। काकी की सूझ, निष्ठा और देशभक्ति अप्रतिम थी। १६१४ के प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार को कठिनाई का सामना करना पड़ा। तब गांधीजी ने सोचा कि अंग्रेज सरकार को मदद करना हर भारतीय का कर्तव्य है, क्योंकि अंग्रेज सरकार के साथ का झगड़ा तो भारत का आंतरिक मामला है। उन्होंने निश्चय किया कि अंग्रेज सरकार को मदद करने के लिए भारतीय लोगों को सेना में भारती करना और उसकी शुरुआत आश्रम से होनी चाहिए। पर अंग्रेज सरकार को मदद करने को कोई तैयार न था। सिर्फ गांधीजी के अनुयाइयों में से काकासाहेब और नरहरिभाई ने अपने नाम लिखवाये। जब लक्ष्मीबाई को यह वास्तविकता मालूम हुई तो वे गांधीजी के पास पहुंच गई और स्पष्ट रूप से कहा, "बापूजी, जब मेरा उनसे विवाह हआ तब मैं जानती थी कि किसी-न-किसी दिन वे जेल जायेंगे या उन्हें फांसी दी जायेगी। मैं उसके लिए तैयार थी। मेरा नाम लक्ष्मी है। देश के लिए उन्हें फांसी मिले या शंकर और बाल भी न्योछावर हो जायं, फिर भी मैं कायरता कभी नहीं दिखाऊंगी। पर आप उन्हें ब्रिटिश सरकार की मदद के लिए फौज में भरती कराते हो, इसका मैं विरोध करती हैं। और उसके लिए मेरा सहकार कभी नहीं मिलेगा।" यही वार्तालाप सिद्ध करता है उस नारी का असीम नैतिक साहस और प्रचंड शक्ति। उनकी देशभक्ति की सीमा न थी। "अंग्रेज की मदद के लिए तो उन्हें नहीं जाने दूंगी।" गांधीजी भी यह स्पष्ट बात सुनकर चकितसे रह गये। उन्होंने लक्ष्मीबाई के स्पष्ट वक्तव्य की प्रशंसा की। उसी अरसे में प्रथम विश्वयुद्ध बंद करने की नौबत आ गई और सेना की भरती रुक गई। पर इस प्रसंग ने लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व पर अनोखा प्रकाश डाला। गांधीजी को भी मानना पड़ा कि स्वदेश भक्ति में काकी कुछ कम नही है।
काकी भय नहीं जानती थीं। वे अत्यंत निर्भय थीं। काकासाहेब जब पहली बार जेल गये तब काकी स्वयं पुलिस-वन में जाकर बैठ गई थीं। पति के साथ वे भी जेल जाना चाहती थीं। पर उनको जेल के अंदर प्रवेश नहीं करने दिया गया। उन्हें वापस लौटना पड़ा । काका तो सच्चे राष्ट्रभक्त के साथ गांधीजी के सच्चे अनुयायी भी बने रहे। प्रारंभ में उनके अस्पृश्यता-संबंधी विचार के प्रति काकी का तीव्र विरोध रहा। उसके
व्यक्तित्व : संस्मरण | १०७