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मिले, तब काकासाहेब के एक विशिष्ट पहलू के दर्शन हुए। वह बैठे हुए थे, हमारा वार्तालाप चल रहा था। मैंने पूछा, "आपका स्वास्थ्य कैसा है ?" उन्होंने विनोदपूर्वक किन्तु समझने लायक शब्द कहे, "मैं आजकल धीमे-धीमे क्रमशः मरण का अनुभव करता हूं । कान - विदाई मांग रहे हैं। यह एक मरण- विस्मरण भी पीछे पड़ा हो तो इस तरह पीछे दौड़ता आता है, यह दूसरा मरण। यों तो उस शब्द में 'मरण' शब्द तो है ही, यों तबीयत चलती है।" परमसखा मृत्यु' इन शब्दों से मृत्यु पहचानने वाले काकासाहेब का यह विनोदपूर्ण और अर्थवान • वचन था, जो आज भी कानों में गूंज रहा है | O
त्याग और स्वार्पण की मूर्ति काकी
ज्योति थानको
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भारतीय नारी याने संयम, समर्पण एवं सहनशीलता की साक्षात् प्रतिमा ! त्याग और बलिदान का मूर्तिमंत स्वरूप । प्रेम और कारुण्य की मंगलधारा । शील और सत्य की अग्नि शिखा । संस्कृति की धात्री किंवा राष्ट्र के भावी जीवन की विधात्री स्त्री क्या नहीं है ? चाहे वह मां के स्वरूप में हो या पत्नी के रूप में हो, या भगिनी के स्वरूप में हो, वह अवश्य ही प्रेरणादावी बनकर बिना कुछ शब्द कहे अपना कार्य करती रहती है। ऐसी नारी की गरिमा पर भारतवर्ष को गर्व है। भारत का भूतकाल नारी के त्याग, स्वार्पण और शौर्य से उज्ज्वल है।
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भारतवर्ष की मुक्ति के महायज्ञ का आरंभ किया महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की उस रानी ने अपना सर्वस्व मां भारती की स्वतंत्रता के लिए न्योछावर कर दिया। भारत की इस वीरांगना द्वारा प्रज्वलित की हुई मुक्ति की यज्ञाग्नि में कई नारियों ने अपना सब कुछ अर्पित किया। एक सदी तक यह अग्नि प्रज्वलित होती रही। महात्मा गांधी के आने से इस यज्ञ की अग्नि शिखा प्रचंड हो उठी और मां भारती गुलामी की जंजीरों से मुक्त हुई ।
भारत के स्वातंव्य यज्ञ के इतिहास में श्री लक्ष्मीबाई कालेलकर का नाम चाहे न लिखा गया हो, फिर भी उनका समग्र जीवन स्वातंव्य यश की ज्वाला में समर्पित हुआ था। महाराष्ट्र के एक जमींदार परिवार की सुशील कन्या ऐसे ही उच्च और विशाल संयुक्त परिवार में विवाहित होकर जब ससुराल आई तब उसने गृहमांगल्य के कई स्वप्न और अरमान अपने दिल में अंकित किये हुए थे । पतिगृह में पैर रखते ही उसने जाना कि पति को तो अपना विद्याभ्यास जारी रखना है, गृहजीवन तत्काल के लिए शक्य नहीं है, और इस विशाल परिवार को अपने जीवन में आत्मसात् करना है, तब इस मुग्ध बालिका वधू ने अपने सब अरमान अपने दिल के अतल में छिपा लिये। परिवार की सच्ची गृहलक्ष्मी बनकर सबकी सेवा का भार उसने अपने नाजुक कंधों पर ले लिया। बहुत थोड़े समय में वह सबकी प्रीतिपात्र बन गई। अपने-आपको परिवार की समस्त प्रवृत्तियों में इस तरह से व्यस्त रखा कि इस नववधू के दिल के अरमानों का किसी को ख्याल तक न आया। पति का विद्याभ्यास जारी रहा। वे तो उच्च शिक्षा पाने के लिए पूना में ही रहते थे। पति के उज्ज्वल विद्याभ्यास में अपनी ओर से कोई रुकावट न होने पाये, यह सोचकर वह पतिव्रता नारी अपनी ससुराल में रही। पति के
व्यक्तित्व : संस्मरण / १०५