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________________ अपरिचित मार्गों पर चलने की प्रेरणा देनेवाले मोहन परीख साबरमती सत्याग्रह आश्रम का शिक्षक निवास। काकासाहेब, किशोरलालभाई, महादेवभाई, नरहरिभाई, पंडितजी खरे-सभी परिवार एक चाली में रहते थे। आमने-सामने दो कतारें थीं। एक ओर रहने-बैठने के कमरे, बड़े रास्ते की ओर लकड़ी की पटिया लगाकर बनाया हुआ जालिया; दूसरी ओर रसोईघर, उसके ऊपर मालिया, पीछे की ओर नहाने का कमरा, जहां पानी भी रखते थे। उस जमाने में शौचालय घर से कुछ दूरी पर अलग सामूहिक उपयोग के लिए बने थे, जिसका सभी इस्तेमाल करते थे। शिक्षक-निवास की चाली में नये विचारों से युक्त गांधी से आकर्षित युवक, उत्साह और उमंग से भरे हुए समझपूर्वक जीवन जीने की लगन के साथ जी रहे थे। उन्हें प्रचलित समाज से काफी अलग होकर अपनी मरजी के अनुसार प्रयोग करने की पूरी छूट थी। छोटी-छोटी बातों के संबंध में वे विचार-विमर्श करते और निर्णय लेते। जहां कहीं शंका होती या अधिक सोचने जैसा लगता तो बापूजी आश्रम में थे ही। शिक्षकों में अग्रगण्य काकासाहेब उनके साथ चर्चा कर आते थे। आपस में विश्वास, प्रेम और कुछ कर मिटने की तमन्नावाले ये युवक एक-दूसरे के गुण ही देखते थे। शाला में शिक्षक का कार्य तो सब मिलकर चलाते ही थे, पर एक-दूसरे के जीवन के बारे में भी ज्यादा निकटता उनमें थी। अकेला पुरुष-वर्ग ही ऐसा सोचता हो, सो नहीं, बहनें भी ज्यादातर सुनती रहती थीं और बाद में सहेलियों की तरह आपस में एक-दूसरे से बातें करतीं। अपनी पसंदगी या नापसंदगी भी अवश्य बतातीं। बापू बहनों को मिलने के लिए खास तौर पर बुलाते और पूरा समय देते। ऐसे बापू-परिवार का वटवृक्ष विकसित हो रहा था। इसी समय हम बच्चों का जन्म हुआ, सभी परिवारों को एक-दूसरे के बालकों में दिलचस्पी थी। पिताजी के समकक्ष निकट के व्यक्तियों को हम 'काका' कहते थे और मां की सहेलियों को 'मौसी' कहते थे। पर काकासाहेब की पत्नी को सभी 'काकी' कहते और पंडितजी खरे की पत्नी को 'आई'। नारायण अपने पिता जी को 'काका' कहता था, जिससे काकासाहेब को वह 'बीजीकाका' कहता था। यही शिक्षक नव-स्थापित गुजरात विद्यापीठ में, आश्रम से दो मील दूरी पर, पढ़ाने जाते थे। काकासाहेब विद्यापीठ के आचार्य हुए तो वहीं रहने गये। नरहरिभाई भी उस समय विद्यापीठ के महामान बने और वे भी विद्यापीठ में रहने लगे। दोनों का आपस में गहरा प्रेमभाव और विश्वास था, जिससे काम बहुत निखर उठा। मेरी उम्र ६-७ साल की हुई तब सहज ही प्रश्न उठा, "मोहन की पढ़ाई का क्या करें?" बचपन में मैं तूफानी और घुमक्कड़ था। उस समय काकासाहेब की ओर से ऐसा प्रोत्साहन मिला कि १० साल की उम्र तक बच्चों को शाला में जाकर लिखाई-पढ़ाई करने की कोई जरूरत नहीं है। मेरा तो काम बन गया ! कोई पूछता, "क्या पढ़ते हो?" जवाब तैयार रहता, "काकासाहेब ने पढ़ने की मनाई की है।" दस साल की उम्र तक शाला न जाने का सूत्र मैंने पकड़ लिया और अक्षरशः उसका पालन किया ! विद्यापीठ में विविध उद्योग चलते थे। काकासाहेब सुथारी उद्योग में जाते थे। मेरे पिताजी ने भी मुझे सुथारी के औजार ला दिये थे और मैं भी काकासाहेब के साथ ही अपनी पटरी रखकर काम करता था। काकासाहेब १४ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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