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से उद्योग और हस्त-कौशल और टेक्निकल काम की प्रेरणा पाता था। कई साल गुजरने हुए और सुधार और अनुसंधान के कार्य में बहुत काम आये ।
कई लोग पूछते थे कि तुम्हारे पिताजी ने तुम्हें पढ़ाने का बहुत ध्यान रखा होगा, और तुम्हारे लिए काफी समय देते होंगे। पूछनेवालों को कहां खबर थी कि पढ़ाने में पिताजी का कभी विश्वास ही नहीं था तो सामने बिठाकर समय देने का सवाल ही कहां से उठता ! हां, वे दूरी पर रहते हुए निगाह रक्खा करते थे, कि मेरा विकास सही ढंग से हो रहा है या नहीं। उन्होंने मुझे न पढ़ाकर और काकासाहेब की राय के मुताबिक शाला में न भेजकर ही मेरी सच्ची शिक्षा की । इस तरह मेरी शिक्षा में उन्हें जरूर दिलचस्पी थी, ऐसा कह सकते हैं ।
श्रीनगर स्कार
बचपन में काकासाहेब के कारण किसीने मुझे पढ़ने को नहीं कहा। सुधारी उद्योग और विज्ञान के वर्गों में घंटों सभी कार्य और प्रयोग करना, उनका निरीक्षण करना यही मेरा शिक्षा क्रम रहा और यंत्रशास्त्र बीज यहीं से पड़े, जिनसे मेरी आगे की सारी शिक्षा हुई ।
बड़े होने पर स्वतंत्र रूप से काम करने का समय आया और कार्य की पसंदगी भी बुनियादी शिक्षा पद्धति से मुझे स्वयं ही करनी थी, ऐसी पिताजी की राय रही। भाई नारायण देसाई के साथ बातचीत चलती रहती थी । हम दोनों ने स्वतंत्र रूप से सोच लिया कि हम लोगों को जिस तरह तालीम मिली है, वैसी ही तालीम का दूसरों को लाभ मिल सके तो कितना अच्छा होगा ! हमने नई तालीम के माध्यम से साथ मिलकर, एक जगह बैठकर काम करने का तय किया। बेड़छी स्थान तय हुआ और गांव की शाला हमारी शाला बनी। नई तालीम के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति, समाज और उद्योग हमारे शिक्षा के माध्यम बने । प्रथम तो शिक्षा दी प्रकृति और समाज की, यह तो ठीक था; पर जब शाला में उद्योग की शिक्षा मिलने लगी तो वह वास्तविक परिस्थिति से भिन्न होने के कारण मुझे संतोष न था कहा करता कि सच्चा उद्योग चलना चाहिए। आज जो हम चलाते हैं, वह उद्योग वास्तविक नहीं, बल्कि खेल-सा लगता है । से राजी होंगे ? उनको तो अकेले पढ़ने-लिखने के बदले तीन उंगलियों की उंगलियों का इस्तेमाल करना सीखे, अपना हाथ चलाये, उससे संतोष था । और वे ऐसा भी मानते थे कि उद्योग द्वारा उपार्जन और स्वावलंबन, यह सही नहीं है। मुंह से वे बोलते नहीं थे, पर मन में ऐसा भी था कि शिक्षा के लिए चलनेवाले उद्योग में बिगाड़ भी अनिवार्य है। मुझे ये सब बातें किसी भी तरह पसंद नहीं थीं ऐसी मेरी मानसिक स्थिति थी। संयोग से मुझे काकासाहेब का सहारा मिल गया।
मेरे कहने पर शिक्षण शास्त्री कहां
तालीम के बजाय विद्यार्थी १०
सन् १९५६ में वालम (जि० महेसाणा, गुजरात राज्य ) में गुजरात नई तालीम सम्मेलन हुआ । काकासाहेब उसके अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा, "यदि शाला में उद्योग दाखिल करने में हम सफल न हुए तो उद्योग में शिक्षा दाखिल करेंगे।" इस बात ने मेरे विचारों को बल और प्रोत्साहन दिया और इस दिशा में काम करने की इच्छा होने लगी। पिताजी की बीमारी के कारण उन्हें छोड़कर बारडोली से बाहर जाना संभव नहीं था । अतः बारडोली आश्रम में ही श्री आर्यनायकमजी के आशीर्वाद से उत्तर बुनियादी विद्यालय शुरू किया। पांच विद्यार्थी आये। कृषि हमारा मूल उद्योग था। खेत में जो पके, वही खाना! गलके और तुरई खूब आने लगे। दोनों समय उसकी भाजी शक्करकन्द पके तो सवेरे नाश्ते में उबले हुए शक्करकन्द, दोपहर के भोजन में उसकी भाजी और शाम को पकाये हुए शक्करकन्द में आटा डालकर उसकी चपाती बनाते थे । पिताजी का अवसान होने पर विद्यालय बंद हो गया ।
मेरी बुनियादी शिक्षा के कारण सन् १९५६ से कृषि के औजारों में सुधार और अनुसंधान का कार्य सर्व सेवा संघ के बुजुर्गों ने मुझे सौंपा। तब से उन्नत कृषि औजार बनाने का काम शुरू हुआ। इसी समय सन्
व्यक्तित्व : संस्मरण / १५