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________________ उनके वर्णन इतने सरस होते थे कि सुनते-सुनते उनका चित्र आंखों के आगे साकार हो जाता था। फूल और फलों का जब वह परिचय कराते थे तो फूलों की महक और फलों का स्वाद अनुभव होने लगता था। देश-विदेश में काकासाहेब का लाखों व्यक्तियों से सम्पर्क आया है। वस्तुतः वह 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में विश्वास रखते हैं और इस दष्टि से उनका परिवार अत्यन्त विशाल है। कुछ वर्षों से काकासाहेब की स्मरण और श्रवण शक्तियां क्षीण हो गयी हैं। इन शक्तियों से काकासाहेब ने काम भी तो कम नहीं लिया। अब वह अधिकांश चेहरों को भूल जाते हैं, लेकिन अभी कुछ महीने पहले जब मैं उनसे मिली तो उन्होंने मुझे एकदम पहचान लिया और प्रसन्नता के साथ मेरा नाम लिया। बोले, "मेरी याददाश्त अब बहुत कमजोर हो गयी है। बहुत से लोगों को मैं भूल गया हूं। पर तुम्हें नहीं भूला। इसका मतलब यह है कि बहुत पुराने संबंधों की स्मृति अब भी मेरे मस्तिष्क में बनी हुई है।" मैं जब भी उनसे मिलती थी, वह मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। उनके आग्रह के कारण ही कुछ वर्ष पहले मैंने उनकी गुजराती में लिखी जापान यात्रा 'उगमणों देश' का हिन्दी में अनुवाद 'सूर्योदय का देश' के नाम से किया था। मैं जानती हूं कि इस काम के लिए उन्हें बड़े-से-बड़े लेखक और अनुवादक मिल सकते थे, लेकिन उन्होंने यह काम मुझसे ही कराया। बच्चों से भी जवाबदारी के काम कराने की उनकी कला का यह एक सबूत है। काकासाहेब से संबंधित एक घटना की छाप मेरे मन पर अभी भी जमा है। उनके छोटे युवा पुत्र बालभाई का अकस्मात हृदय की गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया। इस दुःखद समाचार को सुनते ही हम लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। बड़ी कठिनाई से हिम्मत करके उनके यहां गये। बड़ा हृदयस्पर्शी दृश्य था। बालभाई एक कमरे में चिर-निद्रा में लेटे हुए थे। उनके बडे भाई और लड़के अन्तिम यात्रा की तैयारी में लगे थे। सामने ही काकासाहेब एक पलंग पर धीरज और सांत्वना की मूर्ति बने बैठे थे। हमारे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे । बालभाई हर साल रक्षाबंधन पर मेरे पास राखी बंधवाने आते थे। यह स्नेह-सूत्र बचपन से ही बंधा हुआ था । बालभाई को देखकर हमारे धीरज का बांध ट गया। पर काकासाहेब ने हमें धीरज बंधाया। हमें ही क्यों, वह सबको समझा रहे थे। बड़े तटस्थभाव से सारी घटना बता रहे थे। बुढ़ापे में अपने लाडले बेटे को चिरविदा देने से पहले काकासाहेब ने प्रार्थना करवाई, बड़े उद्बोधक प्रवचन कहे। सारा वातावरण नितान्त शांत और पावन था। ऐसे अवसर पर मन का इतना संतुलन रखना एक अद्भुत देवीगुण ही मानना चाहिए। ईश्वर से प्रार्थना है कि काकासाहेब बहत वर्षों तक हमारे बीच बने रहें और हम उनके आशीर्वाद से निरन्तर प्रेरणा लेते रहें। व्यक्तित्व : संस्मरण | ६३
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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