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114281 । दूध और पानी की तरह एकाकार हो जाते हैं। आचार्य हरिभद्र ने भी 'बंधो जीवस्य कर्मणः' के रूप में आत्मा
एवं कर्म पुद्गलों के संयोग को बंध कहा है।' इस प्रकार बंध कर्म पुद्गल का परिणमन है, जो कषाय भाव की न्यूनता और अधिकता के आधार पर आत्मा के साथ अल्प या अधिक समय के लिए संबंधित हो जाता है। ... उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर बंधन दो विरोधी गुणधर्म वाली सत्ताओं के पारस्परिक संयोजन की एक कड़ी है जिसमें आत्मा का स्वभाव परिवर्तित होता है। बंधन तभी घटित होता है जब जीव में कषाय विद्यमान हो इस प्रकार बंधन में कर्म के कारण जीव में अशुद्धता आती है। अर्थात् कषाय का उदय होता है और कषायोदय के कारण कर्म का जुड़ाव प्रारम्भ होता है जो काय मन और वचन के निमित्त होता है। इसी को जैन दर्शन में भाव एवं द्रव्य बंध कहा जाता है। मूल कारण के रूप में जीव का भाव और सहयोगी कारण के रूप में जीव की क्रियात्मकता होती है। बिना भाव बंध के द्रव्य बंध नहीं घटित हो सकता। इस प्रकार बिना भाव बंध के जीव अजीव का संबंध नहीं हो सकता भाव को ही मुख्यतः कषाय कहा गया है राग और द्वेष मूलतः कषाय हैं जिनका विस्तार क्रोध, मान, माया और लोभ है। __इन्हीं कषाय और योग के आधार पर' जैन दर्शन में चार प्रकार का बंधन स्वीकार किया गया है। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाव चार प्रकार के बंध है जिनमें प्रकृति और प्रदेश बंध योग पर आधारित है अर्थात् द्रव्य बंध है और स्थिति और अनुभाग कषाय जनित हैं इसलिए इन्हें भाव बंध के रूप में समझना चाहिए। यह बंधशुभ-अशुभ दोनों रूपों में होता है। ___ 1. प्रकृति बंध : प्रकृति का अर्थ स्वभाव है। अतः यह बंध कर्म प्रकृतियों के स्वभाव पर आधारित है यह बंध आत्मा के सम्पर्क में आने वाले कर्म पुद्गलों के स्वभाव का निर्धारक है इस बंधन में भिन्न-भिन्न प्रकार की कर्म प्रकृतियाँ आत्मिक शक्ति को भिन्न-2 रूपों में क्षीण बनाती हैं। जैन दर्शन में इस प्रकार की कुल आठ कर्म प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय नाम से विवक्षित हैं, इन आठों को मूल कर्म प्रकृति कहा गया है। इस रूप में मूल प्रकृति बंध भी आठ प्रकार का माना गया है। इन आठ मूल प्रकृतियों के अवांतर भेद प्रभेद हैं जिन्हें उत्तर प्रकृति कहा गया है इनकी कुल संख्या 97 मानी गयी है। 2
2.प्रदेशबंध: प्रदेश बंध में कर्म परमाण आत्मा के किस विशिष्ट भाग को आवरण करेंगे इसका निर्धारण होता है इस अवस्था में पुद्गल कर्म प्रदेश आत्म प्रदेश के साथ जुड़ते हैं। चूकि कर्म पुद्गल भिन्न स्वभाव के होते हैं और अपने स्वभावानुसार अपने-2 परिणाम में विभाजित हो जाते हैं। यह परिणाम विभाग ही प्रदेशबंध है। 3 यह बंध कर्म फल की विस्तार क्षमता का निर्धारक है। यह बंध आबद्ध आत्मा के प्रदेश का निर्धारक है।
उपरोक्त दोनों बंध योग अर्थात् जीव की शारीरिक, मानसिक और वाचिक प्रवृत्तियों से होते हैं। शरीरधारी जीव में होनेवाली क्रिया इन बंधनों का कारण है। जब तक जीवन रहता है तब तक यह बंधन घटित होगा किन्त जीव के साथ यदि कषाय न जुड़ा हो तो यह बंधन आत्मा के स्वरूप को प्रभावित नहीं कर सकते।
3. स्थिति बंध : जितने समय तक कर्मरूपी पुद्गल परमाणु आत्म प्रदेशों में स्थिर रहते हैं वह काल सीमा स्थिति बंध कहलाती है। यह आत्मा और वर्ण पुद्गलों के सम्बद्ध रहने की कालावधि का निर्धारक है। इस बंधन में यह निश्चित होता है कि आत्मा के ज्ञान दर्शनादि जिन शक्तियों का आवरण हुआ है, वह कितने समय तक रहेगा। आचार्य पूज्यपाद ने स्व-स्वभाव से च्युत न होने को स्थिति बंध कहा है। इस प्रकार स्थिति बंध कर्म बंधने और परिणाम देने के बीच की अवस्था है। जिस स्वभाव का कर्म पुद्गल है वह अपने स्वभाव या स्थिति को सदैव