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(सांख्य दर्शन में इधनः
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जैन एवं सांख्य दर्शन में बंधन की अवधारणा
डॉ. संतोष त्रिपाठी भारतीय दर्शन में बंधन की अवधारणा मानव के संत्रस्त जीवन पर की जाने वाली एक वैचारिक खोज है। इसके आधार पर एक तरफ दर्शन की आचार मीमांसा का निर्धारण होता है तो दूसरी तरफ आत्मा, कर्मफल एवं पुनर्जन्म जैसे दार्शनिक प्रत्ययों का पोषण भी होता है। भारतीयदर्शन की प्रायः सभी विद्याओं में जीवन की विविधता और विचित्रता के आधार पर बंधन के स्वरूप, कारण और निवारण पर व्यापक चिंतन किया गया है सभी ने वर्तमान जीवन को बंधन का परिणाम माना है।
सामान्यतः भारतीय दर्शन में बंधन का मूल कारण अविवेक या अज्ञान को स्वीकार किया गया है। अज्ञान एक प्रकार का मिथ्या ज्ञान है। जिससे जीव एक आत्मस्वरूप का बोध नहीं कर पाता, परिणामतः जीव का प्रत्येक व्यवहार उसे बंधन ग्रस्त करता है और जीव बार- 2 जन्म लेता और मरता है। इस प्रकार बंधन की दो विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं प्रथम यह कि वर्तमान जन्म, बंधन का परिणाम है और दूसरा कि वर्तमान जन्म के बंधन पर भावी जन्म की रूपरेखा निर्धारिक होगी। इस प्रकार बंधन की अवधारणा जीव के भूत वर्तमान और भविष्य के साथ जुड़ी है।
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हमारा विवेच्य विषय जैन एवं सांख्य दर्शन से सम्बंधित है अतः इन दोनों दर्शनों के । बंधन की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इनमें साम्य एवं वैषम्य का विवेचन किया
जाएगा।
जैनदर्शन में बंधन का स्वरूप एवं प्रकार : जैन दर्शन के अनुसार जीव का अजीव के साथ संबंध हो जाना ही बंध है अर्थात जब हमारी आत्मा संसार में आती है तो उसका जुड़ाव संसार के उन अजीव तत्वों से होता है जिन्हें कर्म पुद्गल कहा जाता है। इसप्रकार आत्मा का कर्म पुद्गल के साथ जुड़ाव ही बंधन है। आत्मा का अजीव के साथ यह जुड़ाव जीव के भाव (कषाय) और क्रियाओं पर आधारित होता है । इस प्रकार जब आत्मा में कषाय या राग-द्वेष का भाव उत्पन्न होता तभी कर्म पुद्गल आत्मा को जकड़ लेते हैं। परिणामतः आत्मा परतंत्र हो जाती है आत्मा की परतंत्रता बंधन है।' आचार्य उमास्वाती
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आत्मा की इसी अवस्था के आधार पर 'सकषायी जीव द्वारा कर्म योग्य पुद्गलों के ग्रहण को बंध कहा है।'' बंधन की इस अवस्था में कर्म प्रदेश और आत्म प्रदेश परस्पर ।