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म तियाकतात | अम्बाजी के मंदिर के पास ही मुनि अनिरुद्धकुमार के चरण चिहन हैं, जिनकी वंदना जैनी करते हैं। नेमिप्रभु के । चरण-चिह्नों से वह मार्ग पवित्रपूत जो हुआ था। आगे तीसरी टोंक पर भगवान नेमि के चरणों की देवकुलिका
है। वहीं मुनि शंभुकुमारजी के चरण हैं, जिसके सामने पंडा लोगों का आवास है। ___चार हजार फीट नीचे उतर कर चौथी टोंक पर चढ़ना होता है इसकी चढ़ाई कठिन है। टोंक के ऊपर एक काले पाषाण पर भगवान नेमिनाथ जी की प्रतिमा तथा दूसरी शिला पर मुनि प्रद्युम्नकुमारजी के चरण हैं। यहां से नीचे उतर कर पांचवीं टोंक पर सीढ़ियों द्वारा चढ़ना होता है, जो सुगम है। यह शिखर सबसे ऊँचा है और इसके चारों
ओर का दृश्य अत्यन्त मनोहारी है। ___ यहां पर एक बड़ा भारी घंटा बंधा हुआ है, जिसकी देखभाल हिन्दु साधु करते हैं। वैष्णव लोग इन चरणों को गुरुदत्तात्रेय के मानकर पूजते हैं। संभव है, भगवान नेमि के मुख्य गणधर श्री वरदत्त को ही दत्त आत्रेय मानकर लोग पूजने लगे हों। मुनि वरदत्त भर यहां से मुक्त हुये थे।
लौटते हुये पहली टोंक पर पहुंचने पर दाहिने हाथ के रास्ते पर मुड़ते हैं जो सहसावन को गया है। यह 'सहस्रावन' का अपभ्रंश है। उस वन में ही भगवान नेमिनाथ का दीक्षाकल्याणक समारोह हुआ था। मुड़ते ही 'गोमुखी कुण्ड' है, जिसमें पर्वत पार्श्व से निरन्तर जलधारा बहती हुई चौबीस तीर्थंकरों के चरण चिह्न-पट का
अभिषेक करती है। उस पर लेख अंकित है। ___ सम्राट अशोक भी गिरिनार को भुला न सके थे। उनके कई धर्मलेख आज भी मिल रहे हैं। अशोक ने उनमें भगवान नेमि के अहिंसा धर्म का ही उपदेश जनता को दिया था। ___ अशोक के पश्चात् मौर्य सम्राट सम्प्रति और सालिसूक ने भी सौराष्ट्र में जैनधर्म का प्रचार किया था और जैन मंदिर आदि बनवाये थे। छत्रप रुद्रसिंह ने यहां जैन मुनियों के लिए गुफाएँ बनवाई थी जिस से स्पष्ट है कि जैन मुनिगण यहां तपस्या करते थे।
५. पावागढ़
श्री पावागढ़ प्राचीन पवित्र पुरातत्त्व सिद्धक्षेत्र है। यहां से श्री रामचन्द्रजी के दो पुत्र लव और कुश तपस्या करके मोक्ष पधारे थे। तबसे इस पहाड़ के शिखर में उनकी चरणपादुकायें बनाई गई थीं और पर्वत की चट्टानों । पर प्रतिमायें उत्कीर्ण की गई थीं। ये अभी तक हैं। बहुत वर्ष पहले चांपानेर रमणीय प्राचीन बड़ा शहर था और । पहाड़ पर भी प्राचीन किले की दीवार और किला था। आज भी जगह-जगह उनके खण्डहर देखने को मिलते हैं। । प्राचीन समय में इस नगरी में बावन बाजार और चौरासी चौक थे। इस नगरी का राजा प्राचीन समय में जैनी था। . संघ सहित भ्रमण करके दक्षिण की ओर निकले। लव और कुश को अपना काल निकट आया है ऐसा ज्ञान । होते ही पावागढ़ पर ठहर गये। यहां पर देवडूंगरी के शिखर पर तपश्चर्या शुरू की और सल्लेखना धारण करके । दोनों भाई यहां से मोक्षगामी हुए। यहां से पांच करोड़ मुनिराज भी मोक्ष गये हैं, इसलिए यह तीर्थ सिद्धक्षेत्र ! कहलाता है।
इतिहास कहता है कि ईस्वी सन् ४०० वर्ष पहले आज से करीब २५०० वर्ष पहले गुर्जर देश में वीरसेन नाम का जैनी राजा था। पिता का नाम सुरेन्द्रसिंह और माता का नाम चन्द्रवती था। इस वीरसेन राजा ने दिगम्बर जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया और मंदिरों के रक्षार्थ किला बनवाया। महाराजा चंद्रगुप्त मौर्य कभी दक्षिणयात्रा के समय रास्ते में परम पूज्य पावागढ़ सिद्धक्षेत्र की वन्दना की।
ई.स. १४२ में आज से करीब १८०० वर्ष पहले ग्रीस देश का महान भूगोलवेत्ता श्री टोलेमी भारत में भ्रमण करने आया था। उसने अपनी प्रवास डायरी में पावागढ़ के संबंध में लिखा है कि "पावागढ़ बहुत पवित्र यात्रा का