SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कानपरातल सम्मन 2550 | प्रशस्ति लेखक ने मान-मतंग पर न चढ़ने की नीति का निरूपण श्लेषात्मक ढंग से कितना सुन्दर किया है, यह । ऊपर के श्लोक में पढ़िये। कवि कहता है : “हे अमर पर्वत! गर्व मत करो, सूर्य-चंद्र-नक्षत्र तुम्हारे प्रेम में ऐसे मुग्ध हुए हैं कि रास्ता चलना भूल गये हैं, (वह तुम्हारी ही प्रदक्षिणा देते हैं); किन्तु वही क्या? भला लोक में ऐसा कौन है जो तुम पर मुग्ध न हो! जय हो, एक मात्र पर्वत की; जिसके दर्शन करने से लोग भ्रांति को खोकर आनन्द | का भोग करते है और परम सुख को पाते हैं।" ईस्वी सातवी शताब्दि में चीनी यात्री हएनसांग जब भारत आया तो वह सौराष्ट्र भी गया। वहाँ गिरनार की महानता देखकर वह उसकी ओर आकृष्ट हुआ। उसने लिखा, “नगर से थोड़ी दूर पर पहाड़ यूह-चेन-हो (उज्जन्त) नामक है, जिस पर पीछे की ओर एक संघाराम (बौद्धविहार) बना हआ। इसकी कोठरियां आदि । अधिकतर पहाड़ खोदकर बनाई गई हैं। एक पहाड़ घने और जंगली वृक्षों से आच्छादित तथा इसमें सब ओर झरने ! प्रवाहित हैं। वहाँ पर महात्मा और विद्वान पुरुष विचरण किया करते हैं तथा आध्यात्मिक-शक्ति सम्पन्न बड़े बड़े ऋषि आकर एकत्रित हुआ करते और विश्राम किया करते हैं।" इस वर्णन से स्पष्ट है कि गिरिनार उस समय भी भारत का धार्मिक और सांस्कृतिक केन्द्र बना हुआ था और आज भी तो उसकी यह विशेषता विद्यमान है। वर्तमान रूप- प्राचीन काल में जो पर्वत ऊर्जयन्त अथवा रैवत या रैवताचल कहलाता था, वह आज गिरिनार ! के नाम से विख्यात है। यह नाम का परिवर्तन रैवताचल की तलहटी में बसे हुये नगर 'गिरिनगर' के कारण हुआ है, जो एक समय विश्व विख्यात हो गया था। हो सकता है कि वह नगर इतना समृद्ध और विस्तृत हुआ हो कि । रैवत के शिखर तक जा पहुँचा हो क्योंकि राखेंगार का गढ़ पहली शिखर पर ही था। इसीलिये पर्वत भी 'गिरिनयर' में गिना जाने लगा और वह गिरिनयर से गिरिनार हो गया। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में पटना, मथुरा, उज्जैन और गिरिनार जैन धर्म के मुख्य केन्द्र रहे थे। आज पुराना गिरिनयर जूनागढ़ में बदल गया है उसका चोला ही नहीं रहा तो नाम भला क्या रहता? इसीलिये लोग उसे 'जूना'- पुरानागढ़ ठीक ही कहते हैं। । रवैत की तलहटी में सम्राट अशोक के प्रसिद्ध धर्मलेख और जैनों की धर्मशालाएँ हैं। __ गिरिनार की इस पहली टोंक पर जैनों के नयनाभिराम मंदिर बने हुए हैं, जो भारतीय कला के अद्भुत नमूने हैं। यहां पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैनों की एक-एक धर्मशाला भी है। आगे जरा ऊपर चढ़कर श्री सती राजुल की गुफा के दर्शन किये। यहां ही राजुल जी ने तपस्या की थी उनकी मूर्ति है। पर्वत के पार्श्व में दो नग्न जैन । मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। इस पर्वत पार्श्व के ऊपर एक परकोटे के भीतर तीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं। इनमें से एक । को प्रतापगढ़ निवासी श्री बंडीलाल जी ने सं. १९१५ में निर्माण कराया था और दूसरे को लगभग इसी समय शोलापुर के सेटों ने बनवाया था। दिगम्बर जैनों के कुछ और प्राचीन मंदिर भी थे, जो श्वेताम्बर मंदिर के परकोटे में हैं। इनमें एक प्राचीन मंदिर ग्रेनाइट पाषाण का है, जिसकी मरम्मत सं. ११३२ में सेठ मानसिंह भोजराजा ने । कराई थी। कर्नल टॉड ने इस मंदिर को दिगम्बर जैनों का लिखा है। किन्तु अब यह श्वेताम्बर बंधुओं के संरक्षण । में है और इसमें भगवान नेमिनाथ के स्थान पर भगवान संभवनाथ के मूर्ति विराजमान है। एक प्राचीन मंदिर राजा मंडलीक का बनवाया हुआ है। मेरवंशी श्वेताम्बर मंदिर समूह में दर्शनीय शिल्पकला है। आगे सम्राट् कुमारपाल का मंदिर है, जिसमें अभिनन्दन जिन विराजमान है। इस मंदिर के बाहर भीमकुंड के पूर्व में बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ खंडित हुई पड़ी हैं। उपरान्त 'वस्तुपाल तेजपाल' के तीन मंदिर हैं- इनका पत्थर विदेशों से मंगाया गया था। इनके मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान हैं। अन्त में सम्प्रति राजा का मंदिर है, परन्तु अब उसमें ऐसा कोई चिह्न शेष नहीं जो उसकी प्राचीनता को प्रगट करता हो। मंदिरों के आगे उपरोक्त दिगम्बर मंदिर और राजुल की गुफा है।। अम्बादेवी के मंदिर को जैन वैष्णव दोनों पूजते हैं। बर्जेस का अनुमान है कि यह मंदिर मूल में जैनों का है।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy