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________________ परम्परा 227 जैनेन्द्र व्याकरण की एक और विशेषता है कि इसमें एक शेष समास प्रकरण की सत्ता नहीं है, परन्तु ! पाणिनीय व्याकरण में है । आ. देवनन्दि की मान्यता है कि लोकव्यवहार में प्रचलित तथ्य तथा रूप के लिए सूत्रों का निर्माण मुधा - कलेवर वृद्धि है। उन्होंने “स्वाभाविकत्वादभिधानस्य एकशेषानारम्भः " सूत्र लिखकर प्रकरण 1 की समाप्ति कर दी, इसीलिये " जैनेन्द्र व्याकरण अनेक शेष नाम से जैन ग्रन्थों में निर्दिष्ट है ।" व्याकरण शास्त्र में 'लाघव' का महत्त्व अतिशयित है। लाघवार्थ पाणिनि ने प्रत्याहार, संज्ञा और गणपाठों का निर्माण किया, ताकि अनेक वर्णों, अनेक अर्थों अनेक शब्दों को एक शब्द द्वारा अल्पाक्षर सूत्र का विन्यास संभव हो सके, देवनन्दि ने पाणिनि संज्ञाओं के स्थान पर नवीन संज्ञाएं उद्भावित की हैं। इस जैनेन्द्र व्याकरण में संज्ञाओं को और भी लघु तथा सूक्ष्म बनाकर लाघव के क्षेत्र में एक और कदम बढ़ाया है। पाणिनि और जैनेन्द्र 'कुछ संज्ञाओं का एक तुलनात्मक नमूना प्रस्तुत है की पाणिनी गुण वृद्धि आत्मनेपद प्रगृह्य दीर्घ जैनेन्द्र एप् (1.1.16) ऐपू (1.1.15) दः (1.2.151) fa (1.1.20) दी (1.1.11) बम् (1.3.86) षम् (1.3.19) ह: (1.3.4) बहु तत्पुरुष अव्ययीभाव जैनेन्द्र व्याकरण में एक और वैलक्षण्य दृष्टिगोचर होता है, विभक्ति शब्द के ही प्रत्येक वर्ण को अलग करके 1 स्वर के आगे 'पू' तथा व्यंजन के आगे 'आ' जोड़कर सातों विभक्तियों की संज्ञाएं निर्दिष्ट की हैं- यथा - वा (प्रथमा), इप् (द्वितीया) भा (तृतीया) अप् (चतुर्थी) का (पंचमी) ता (षष्ठी) ईप् (सप्तमी ) । ऐसा निर्देश अन्यत्र उपलब्ध नहीं। इससे देवनन्दि की अनूठी प्रतिभा झलकती है। पूज्यपाद - देवनन्दि ने अपने शब्दानुशासन में व्याकरण मतों के प्रदर्शन में छह आचार्यों का उल्लेख किया है।'' ये छह आचार्य हैं- श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, समन्तभद्र । पं. श्री प्रेमी एवम् पं. फूलचन्द्र द सि. शास्त्री ने उक्त आचार्यों के ग्रन्थों की अनुपलब्धि वश अनुमान किया है कि इन आचार्यों ने कुछ भिन्न शब्दों के प्रयोग किये होंगे और उन्हें सिद्ध करने तथा उनके प्रति आदर व्यक्त करने हेतु ये सूत्र रचे होंगे परन्तु पं. युधिष्ठिर मीमांसक का मत है यदि सावधानीपूर्वक अवगाहन किया जाए तो उक्त आचार्यों के सूत्र उपलब्ध हो सकते हैं, जैसे कि उन्होंने आपिशक्ति, काशकृत्स्न, एवम् भृगुरि के सूत्रों को खोज निकाला है। इन छह उल्लिखित आचार्यों में सिद्धसेन के व्याकरण - प्रवक्ता होने के विषय में तो जैनेन्द्र महावृत्तिकार अभयनन्दि ने जैनेन्द्र शब्दानुशासन के 1-4-16 की वृत्ति में 'उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः' (अर्थात् सभी वैयाकरण सिद्धसेन से हीन हैं। लिखकर एक प्रबल प्रमाण प्रस्तुत किया है ।) जैनेन्द्र व्याकरण का अपना धातुपाठ है, तथा उसके लेखक ने उणादिसूत्र, परिभाषा सूत्र, लिंगानुशासन, गणपाठ, (जो वृत्ति के साथ यथास्थान सन्निविष्ट है) का प्रणयन भी किया है, जिससे यह शब्दानुशासन सर्वांगपूर्ण है, एवम् देवनन्दि की विशिष्ट मेघा और प्रतिभा का निदर्शक है।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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