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1226 | विज्ञान की विविध शाखाओं में, भाषा में प्रभूत साहित्य का निर्माण किया। ___ ज्ञान की शाखाओं में व्याकरण शास्त्र प्रमुख एवम् स्वतन्त्र विद्या है। भगवान महावीर के पश्चात् सर्वप्रथम
लिखित जैन परम्परा के ग्रन्थराज षट्खण्डागम की धवला टीका में व्याकरण की महत्ता के विषय में कहा गया है | कि 'शब्द से पद की सिद्धि होती है, पद की सिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है और अर्थनिर्णय से तत्वज्ञान अर्थात् | हेयोपादेय विवेक होता है तथा तत्वज्ञान से परमकल्याण होता है। इससे जैन परम्परा में व्याकरणाध्ययन को
तत्त्वज्ञान में कार्यकारी माना गया है। अतः जैनाचार्यों ने इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में उत्तम कृतियां प्रदान की हैं जिनमें से अनेक तो काल कवलित हो गयीं, अनेकों के नाम भी नष्ट हो गये एवं अनेक के नाम शेष रह गये। ___आचार्य देवनन्दि- उपलब्ध जैन व्याकरणों में जैनेन्द्र व्याकरण सर्वाधिक प्राचीन व्याकरण है, इसके कर्ता
पूज्यपाद देवनन्दि हैं। पं. नाथूराम प्रेमी ने इनका काल विक्रम की षष्ठ शताब्दी माना है, जिसे डॉ. युधिष्ठिर मीमांसक ने अपने सं व्याकरण शास्त्र के इतिहास में स्वीकार करने के उपरान्त अपने एक अन्य लेख' में
"अरूणन्महेन्द्रो मथुराम्" जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्र (2/2/92) रूप अन्तः साक्ष्य के गहन समीक्षणोपरान्त विक्रम की पंचम शताब्दी सिद्ध किया है।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनेक आचार्यों-यथा कल्पसूत्र के समय सुन्दर टीकाकार एवम् सुबोधिनी टीकाकार जिनविजय आदि ने जैनेन्द्र व्याकरण को भगवान महावीर द्वारा प्रणीत बतलाया, जिसे पं. नाथूराम प्रेमी अप्रामाणिक मानते हैं।'
अब यह असन्दिग्धतया स्वीकृत है कि जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता देवनन्दि पूज्यपाद ही हैं।
देवनन्दि आचार्य थे, जो वैदिक विद्याओं के भी महान ज्ञाता थे। श्रवणबेलगोला एवम् मंगराज कवि शिलालेखों में आपकी प्रशस्ति वर्णित है, जिनसे देवनन्दि का अपर नाम पूज्यपाद एवम् जिनेन्द्र बुद्धि सिद्ध होता है। शिलालेख । के अनुसार उनका प्रथम नाम देवनन्दि था, बुद्धि की महत्ता से वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवों ने उनके चरणों । की पूजा की इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ। महाकवि धनंजय का श्लोक उनकी अगाध व्याकरण विद्वत्ता । का निदर्शन है, यथा
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनंजय कवेः काव्यं रत्नत्रयंपश्चिमम्॥ धनंजय नामलाला-20॥ जैनेन्द्र व्याकरण के मूल सूत्रपाठ के दो रूप दिखाई देते हैं, लघुपाठ तीन हजार सूत्रों का तथा बृहद्पाठ ३७०० सूत्रों का। लघु पाठ में पांच अध्याय २० पाद एवम् ३०३६ सूत्र हैं। इस पंचाध्यायी ग्रन्थ में पाणिनीय की अष्टाध्यायी समाहित है। पाणिनी व्याकरण में ४००० सूत्र हैं, जबकि देवनन्दि प्रणीत पंचाध्यायी में ३००० । अर्थात् १००० सूत्र कम। इसका कारण है कि पंचाध्यायी में अनुपयोगी होने के कारण वैदिकी एवम् स्वर प्रक्रिया । का अभाव है। __उद्देश्य है लोक व्यवहार में प्रयुक्त व्याकरण का ज्ञान। देवनन्दि की रचना तीक्ष्ण बुद्धि कौशल का विषय यह है कि इस शास्त्र में प्रारंभिक चार अध्यायों के प्रति अन्तिम दो पाद के सूत्रों द्वारा विहित कार्य असिद्धवद् माना गया है।' पाणिनीय व्याकरण में ऐसा कौशल लक्षित होता है। पाणिनीय व्याकरण की पूर्णता कात्यायन कृत 'वार्तिक-पाठ' एवम् पतंजलि के 'महाभाष्य' के व्याख्यान से पूर्ण होती है परन्तु देवनन्दि ने अपने व्याकरण में परवर्ती पाणिनीय वैयाकरणों के मतों को अपनाकर इसे परिपूर्णता पर पहुंचाया। इसप्रकार यह शब्दानुशासन पाणिनीय व्याकरण से बढ़कर है।