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म तियों का जैनेन्द्र के टीकाकार · श्रुतकीर्तिरचित 'पंचवस्तु' नामकी टीका में जैनेन्द्र शब्दागम की प्रशस्ति में लिखा है। जैनेन्द्र प्रणीत शब्दानुशासन विशाल प्रासाद के समान है जो मूल सूत्र रूप स्तम्भों पर खड़ा है, न्यास रूप उसकी भारी रत्नमय भूमि है, वृत्तिरूप उसके कपाट हैं, भाष्यरूप शैय्यातल है, टीकाएं उसकी मालाएं-मंजिलें हैं और पंचवस्तु टीका उसकी सोपान-श्रेणी हैं। इसके द्वारा उस पर आरोहण किया जा सकता है। इससे प्रतीत होता है कि व्याकरण पर न्यास, वृत्ति, भाष्य और टीकाएं लिखी गयी थीं।
न्यास
शिमोगा जिले की नगरतहसील में स्थित 46वें शिलालेख के अनुसार पूज्यपाद ने पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यास एवम् अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र न्यास लिखा था, जो सम्प्रति अनुपलब्ध हैं। जैनेन्द्र पर भाष्य लिखा गया अवश्य था, पर उपलब्ध नहीं। ___ अभयनन्दि मुनि (महावृत्ति)
लेखक ने कहीं अपना परिचय नहीं दिया अतः अन्तः साक्ष्याधार से विक्रम की नवीं एवम् बारहवीं शताब्दी के मध्यकालीन मुनि अभयनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण पर लगभग 12000 श्लोक परिमाण बृहद्
महावृत्ति का निर्माण किया था, जो उक्त ग्रंथ पर प्रथम टीका कही जा सकती है। यह भारतीय ज्ञानपीठ । से प्रकाशित है।
आ. प्रभाचन्द्र 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' व 'न्यायकुमुदचंद्र' के रचयिता महान दार्शनिक आचार्य प्रभाचन्द्र ने जैनेन्द्र व्याकरण पर "शब्दाम्भोजभास्कर न्यास" नाम्नी विशाल व्याख्या लिखी है जो कि आज अविकल रूप से उपलब्ध नहीं, परन्तु । जितनी उपलब्ध है, उससे ज्ञात होता है कि यह महावृत्ति से भी विशाल कलेवर वाली है।
लघु जैनेन्द्रवृत्ति
पण्डित महाचन्द्र (विक्रम की 20वीं शताब्दी) द्वारा लिखित 'लघु जैनेन्द्र वृत्ति'15 का उल्लेख पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने किया है। यह वृत्ति अभयनन्दि की वृत्ति के आधार पर लिखी गयी।
आर्यश्रुतकीर्ति
आर्यश्रुतकीर्ति (12वीं शताब्दी) ने जैनेन्द्र व्याकरण पर 'पंचवस्तु' नामक प्रक्रिया ग्रन्थ लिखा है। भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट में इसकी दो प्रतियां विद्यमान हैं।
पं. श्री बंशीधरजी न्यायतीर्थ (20वीं शताब्दी) ने जैनेन्द्र की अभयनन्दीया वृत्ति के आश्रय से प्रक्रिया ग्रन्थ लिखा है, जो आकलूज निवासी नाथारंग जी गांधी ने मुंबई से प्रकाशित किया है। पं. बंशीधर जी ने प्रकृत प्रक्रिया का संग्रथन अपने गुरू वादिराज केसरी, स्याद्वाद वारिधि पं. गोपालदास वरैया की आज्ञा से अपने छोटे भाई नेमिचन्द्र के निमित्त किया था। अध्ययन करते हुए उनके लघुभ्राता ने ग्रन्थ रचना में पर्याप्त साहाय्य प्रदान किया। यह ग्रन्थ श्रीमद्भट्टोज दीक्षित की सिद्धान्त कौमुदी प्रक्रिया के अनुसन्धानपूर्वक किया गया है।
गुणनन्दी
जैनेन्द्र व्याकरण का द्वितीय सूत्रपाठ जिसमें 3700 सूत्र हैं, उसे कुछ विद्वान पृथक् ग्रन्थ ही मानते हैं, जिसे गुणनन्दि ने किंचित् परिवर्तित एवं परिवर्धित कर नवीन रूप में परिष्कृत किया है और उसे शब्दार्णव नाम से प्रसिद्ध किया है। पं. प्रेमीजी ने आपका स्थिति काल वि.सं. 822 से 957 के मध्य माना है।