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उसी समय हमारी गोलालारीय समाज में कतिपय लोग अपनी तानाशाही से समाज को गलत मार्ग पर तो ! चला ही रहे थे - लोगों की भावनाओं को भी उकसा रहे थे। हम ७-८ लोग उनके बस में नहीं हो रहे थे। सो वे येनकेन प्रकारेण हमारे विरुद्ध षड़यंत्र रचते रहते थे। जब उन्हें इस घटना का पता चला तो वे मुनि महाराज के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना ताकने लगे। इन्हीं सूत्रों ने शिवानंद नगर में होनेवाले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा को फैल कराने की लाखों चेष्टायें कीं । पर मैं और श्री हुकुमचंद परंचरत्न दृढ़ रहे और हमारे साथी लोग भी । हमने इन विघ्न संतोषियों को बिलकुल बाहर रखकर बड़े ही गौरव से पंचकल्याणक संपन्न किया। मैं नहीं चाहता था कि यह प्रतिष्ठा कुमुदनंदी द्वारा हो अतः हम बड़ौदा से दूसरे दो मुनियों को ले आये । प्रतिष्ठा हुई। मैंने तीर्थंकर वाणी में शिथिलाचार पर लिखा और स्पष्ट लिखा 'जो मुनि परीषह सहन न कर सके, बैंक में खाता चलाये, ! स्वाध्याय सामायिक के समय सोये या लड़के लड़कियों से हँसी मजाक करे- सामाजिक षड़यंत्र करे उसके हाथ 1 से प्रतिष्ठित मूर्ति क्या पूज्य हो सकती है ?"
बस फिर क्या था ..... । मेरे विरोधियों को हथियार मिल गया। गोलालारीय समाज के मंच से जब वे कुछ न | कर सके तो यह भ्रामक प्रचार प्रारंभ किया कि शेखरचंद्र जैन मुनि विरोधी हैं। मेरा तथा तीर्थंकर वाणी के 1 बहिष्कार का ऐलान किया। पत्रिका का रजिस्ट्रेशन केन्सल कराना आदि प्रस्ताव पारित किए। कोई ग्राहक न बने और जो ग्राहक बने हैं वे पत्रिका बंद कर दें ऐसा फतवा जारी किया गया। यद्यपि इन सबमें वे निष्फल रहे। कोई 1 ग्राहक कम नहीं हुआ और रजिस्ट्रेशन रद्द कराने का उन्हें क्या अधिकार था ?
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इसमें एकबात और हुई। जब इस ग्रुप ने देखा कि गोलालारीय समाज के मंच से हम कुछ नहीं कर पायेंगे सो समस्त दिगम्बर जैन समाज का नाम जोड़ दिया गया। हर मंदिर पर उनके कथित कार्यकर्ता कागज लेकर मीटींग के लिए सहियाँ कराने लगे। जिसका दुरुपयोग यह किया गया कि हजारों लोग उनके साथ बहिष्कार में जुड़े हैं। 1 इसी संदर्भ में हाटकेश्वर के दिगम्बर जैन मंदिर की बाड़ी में कथित पूरे जैन समाज की मीटिंग हुई। जिसमें ५०-६० गोलालारीय समाज के वे लोग, एक खंडेलवाल, चार-पाँच मेवाडी भाई ही थे । इसमें प्रायः वे लोग थे जिन्हें किसी न किसी बहाने मुझ पर कीचड़ उछालना था। इस मीटींग का अध्यक्ष बनाया गया खंडेलवाल समाज के एकमात्र उपस्थित सदस्य श्री ज्ञानमलजी शाह को । यद्यपि वे मात्र इस मीटिंग के ही अध्यक्ष बनाये गये थे परंतु वे स्वयं को सदैव पूरी समाज का नेता मानते रहे। मेरे विरुद्ध परचे बाँटे गये। शहर के दिगम्बर जैन समाज के ! १०-१२ अग्रगण्य लोग श्री कटारियाजी की अध्यक्षता में मुनि से मिले। पूरी चर्चा हुई और समाधान कराया। पर २ घंटे बाद ही इस गुट को लगा ही वे तो लड़ने से पूर्व ही हार गये सो मुनि को धमकाकर उनसे पुनः वही लिखवा लिया जो वे चाहते थे। मामला पुनः उलझ गया । आखिर जब पानी शिर से उपर हो गया तो मैंने भारतवर्ष के मुनि, श्रेष्ठी विद्वानों को पूरी हकीकत लिखी। उन सबने मेरा समर्थन किया। 'भगवान ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ' ने सर्वानुमति से मेरे पक्ष में प्रस्ताव पारित किया। मैंने लगभग ऐसे ४० पत्रों के साथ श्री ज्ञानमलजी पर इज्जत का दावा कर दिया। केस चलने लगा। उन्हें अनेक लोगों ने जैसे श्री निर्मलजी सेठी, रूपचंदजी कटारिया, सौभागमलजी कटारिया आदिने समझाया भी और लानत भी दी।
इसी बीच मुनि श्री तरूणसागरजी भी आये। उनका चातुर्मास यहाँ हुआ। वे भी कुछ समाधान नहीं करा सके। उल्टे वे उन लोगों की ही बात मानते रहे क्योंकि मैं उनके कुछ शिथिल आचरण पर लिख चुका था। अतः पाँच माह में मात्र एकबार पाँच मिनिट के लिए ही उनके दर्शन को गया था। इतनी सफलता इस ग्रुप को अवश्य मिली कि तरूण सागरजी के कार्यक्रमों से मुझे दूर रखा और मैं भी इसके लिए लालायित भी नहीं था ।