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8 एवं सफलता का कहना
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समाज दो भागो में ही नहीं कई भागों में बँट गया था । सत्य हमारे साथ था। हम दृढ़ थे। मुनि कुमुदनंदी तो चले गये पर समाज में जो वैमनस्य के बीज बो गये उसकी कडुवाहट आज भी हैं । कुमुदनंदी के साथ का यह प्रसंग अतित्रासदीपूर्ण रहा। ऐसे मुनि ही समाज को बिगाड़ते हैं और धर्म को कलंकित करते हैं।
इधर डेढ़ वर्ष पूर्व ऐलक सिद्धांत सागरजी आये। गिरनार आंदोलन के कारण उन्होंने गांधीनगर में जो ऐतिहासिक रेली निकलवाई उससे उनका वर्चस्व जम गया। जब वे अहमदाबाद आये तो उनके प्रयत्न से हमारे ! विवाद का आखिर समाधान हुआ और केस वापिस ले लिया। उन्होंने समस्त दिगम्बर जैन समाज की एकता हेतु दिगम्बर जैन संगठन की स्थापना कराई । यद्यपि इस स्थापना में मेरी भूमिका अहम् थी । पर जब पता चला कि वे भी कान के कच्चे ही निकले, वे भी इसी चौकड़ी में फँसकर उन्हीं की भाषा बोलने लगे। उनकी राजनीतिक चाल अगम्य थी । अतः संगठन के पदाधिकारी होने से एवं कार्यकारिणी में जुड़ने से मैंने इन्कार कर दिया । एक-डेढ़ ! वर्ष में ही यह संगठन लंगडाने लगा । यहाँ भी अपनापन व तानाशाही चली। उद्देश्य जहाँ समाज की उन्नति का होना चाहिए था वहाँ व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और पद का बनने लगा और अन्य को अपमानित करने का कार्य ही अधिक हुआ।
आज वातावरण सुधरा है। जो लोग मेरे प्रति पूर्वाग्रही थे वे भी सत्य को समझे और आज अपनी गलती महसूस कर रहे हैं। मैने भी सब कुछ भुलाकर उन्हें क्षमा ही किया है। आज मेरे मन में भी उनके प्रति कोई राग-द्वेष नहीं । भ. ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ
हस्तानपुर में त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से कोई न कोई शैक्षणिक कार्यक्रम होते ही रहते हैं । इसी श्रृंखला में सन् १९९८ में कुलपति सम्मेलन का आयोजन हुआ। और उस समय उपस्थित विद्वानों ने यह महसूस किया कि विद्वानों का एक ऐसा संगठन या संघ बनना चाहिए जिसमें जैन धर्म-दर्शन- कला और साहित्य में रूचि रखनेवाले विद्वान संगठित हों । मूल उद्देश्य शोधकार्य का ही रखा गया और विविध विश्व विद्यालयों में जैनधर्म पर जो शोधकार्य हो रहे हैं उनका लेखा-जोखा रखना और हस्तिनापुर में ही गणिनी आर्यिका ज्ञानमती शोधपीठ के माध्यम से शोधकार्यों को वेग देना (यद्यपि यह उद्देश्य नर्हिवत ही पूर्ण हो पाया ) । इसी संबंध में विद्वानों का यह संघ 'भ. ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ' के नाम से अस्तित्व में आया। स्वयं माताजी की इसमें प्रेरणा रही और प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामतीजी का मार्गदर्शन एवं क्षु. श्री मोतीसागरजी का निर्देशन प्राप्त । हुआ। परामर्शदाता के रूप में ब्र. रवीन्द्रकुमारजी जैन ने सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके प्रथम संयोजक डॉ. प्रेमसुमनजी उदयपुर को मनोनीत किया गया। हम सब लोगों ने मिलकर इसका संविधान भी तैयार किया । लेकिन जब श्री प्रेमसुमनजी को ऐसा लगा कि इस संघ द्वारा रिसर्च का विशेष कार्य होना संभव नहीं लगता है अतः वे त्यागपत्र देकर इससे पृथक हो गये।
पं. शिवचरणलालजी मैनपुरी वाले जो शास्त्रि परिषद में अति सक्रिय थे वहाँ वे अध्यक्षपद पर आसीन नहीं हुए थे। दूसरे कुंडलपुर को लेकर उनका रुझान माताजी के साथ था। अतः उन्हें विशेष रूप से सदस्य बनाकर अध्यक्षपद सौंपा गया और कार्यकारिणी का गठन हुआ । वे तीन वर्ष तक इस पद पर रहे। इस दौरान महासंघ के मंत्री डॉ. अनुपम जैन ने अपने श्रम से सबसे अच्छा कार्य यह किया की विद्वानों, अध्येताओं, पत्र-पत्रिकाओं की एक सुंदर डायरेक्टरी संपर्क के नाम से प्रकाशित की।
शिवचरणलालजी के पश्चात २००३ में सर्वसम्मति से माताजी के आदेश से मुझे अध्यक्ष पद पर निर्वाचित