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भोसलप सफलता की
1337 । मैं उन्हें रोक न लूँ। मैं भी सोचने लगा ठीक है यहाँ मेरी जिम्मेदारी कम हो जायेगी। फिर उन बच्चों को मुझसे मिला
क्या था? सिवाय नाराजगी के फिर बच्चे लगभग १९७२ तक मेरे साथ नहीं रहे। उन्हें मेरी माँ (उनकी दादी) से जो स्नेह और प्यार मिला वह सर्वाधिक था। वे जैसे मुझे तो भूल ही गये थे। हाँ माँ की याद अवश्य करते। एकबार बाल नहीं कटाने की जिद में मैंने छोटे बच्चे अशेष को बापगीरी बताते हुए फेंक दिया। बस वह दिन था कि जैसे वह बाल सुलभ जिद्द या सभी माँग करना ही भूल गया। अन्तर्मुखी हो गया। उसके मन में परोक्ष रूप से मेरे प्रति भय या नफरत सदैव बनी रही। शायद अभी भी उसका अंश है। १९७२ में भावनगर में स्थायी होने के बाद बच्चे साथ रहे। वहाँ भी बड़े पुत्र ने ११वीं तथा एक वर्ष सायंस का और एक वर्ष बी.ए.एम.एस. का किया। और छोटे ने १२वीं तक पढ़ाई थी। बाकी दोनों ने अहमदाबाद आकर अपना अध्ययन पूरा किया। बड़े राकेश ने बी.ए.एम.एस. तथा छोटे अशेष ने एम.डी. तक अध्ययन किया। ___ भावनगर में मैं श्री महावीर जैन विद्यालय में रहता। बच्चों को भावनगर की श्रेष्ट स्कूल 'घर शाला' एवं
'दक्षिणा मूर्ति' में भरती कराया। रिक्सा में भेजने की आर्थिक सुविधा नहीं थी। पर हमारे चौकीदार दलुभा । दरबार अशेष और बेटी अर्चना को साईकल पर छोड़ने और लेने जाते यह क्रम बच्चों के सातवीं कक्षा तक आने
तक चलता रहा। ___ बड़ा पुत्र डॉ. राकेश स्वभाव से कुछ तोफानी, कुछ न कुछ करने की भावना वाला डायनेमीक व्यक्तित्व का है तो छोटा अशेष पढ़ने में विशेष रूचि, काम से काम... बाकी राम..राम...। बड़े पुत्र का विवाह सागर एवं छोटे का विवाह गुना में हुआ। दोनों बहुए एम.ए. पास हैं। सुंदर, सुशील, आज्ञाकारी और संस्कारी हैं। छोटे पुत्र का सुंदर नर्सिंग होम है और उसी में बड़े पुत्रने अपनी निजी प्रेक्टिस बंध करके दवा की दूकान खोल ली है।
दोनों पुत्रों के १-१ पुत्र व १-१ पुत्री हैं।
दोनों पुत्रों के बाद एक पुत्री अर्चना है। वह सदैव मेरे साथ रही। उसने १०वीं के पश्चात मेरे आग्रह पर पोलीटेक्नीक में सेक्रेटीरीयल प्रेक्टिस का तीन वर्ष का डिप्लोमा किया। फिर बी.कोम. और प्रथम एल.एल.बी. तक अध्ययन किया। अभी उसकी उम्र २० वर्ष की ही थी कि हमें दुर्ग में अच्छा मध्यमवर्गीय परिवार जो मेडिकल के व्यवसाय में था- मिला। श्री शाह रतनचंदजी के सुपुत्र श्री रवीन्द्रकुमार के साथ उसका विवाह संपन्न किया। वे आज दुर्ग के अच्छे दवा के व्यापारिओं में माने जाते हैं। मेरी पुत्री सदैव दोनों परिवारों के बीच संस्कारों की सेतु बनी है। कभी उसने ससुराल की बुराई नहीं की उल्टे उनलोगों के सम्मिलित परिवार की एकता के गुणगान गाये हैं। एक योग्य गृहिणी के रूप में प्रसन्न है। उसके १ बेटा १ बेटी है।
अध्यापन कार्य प्राथमिक शिक्षण
मैं १९५६ में मेट्रिक पास हो गया। जून में रिझल्ट निकला। मैं पास हो गया था। मेरे पास होने पर मेरे काका ! श्वसुर श्री रघुवरदयालजीने लड्डू बाँटे थे। अहमदाबाद की गोलालारीय समाज में मैं पहला मेट्रिक जो हुआ था। अतः पिताजी उस समय हम सबके पूज्य मान्य बुजुर्ग श्री पं. छोटेलालजी वर्णीजी के पास ले गये। उनके बड़े पुत्र देवेन्द्र कमार बैंक में थे। उन्होंने कहा बैंक में क्लर्क हो जाओ। नौकरी लग जायेगी। पर मन नहीं माना। सोचा कारकून कौन बने? अतः मैं वहाँ नहीं गया।
एकदिन बैठे-बैठे विचार आया कि चलो मास्टर हो जायें। मज़ा रहेगा। बच्चों पर रोब झाडेंगे। उसी रखियाल