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मतियों के वातायना से । स्कूल में पहुंचा जहाँ प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। वहाँ हेडमास्टर श्री मन्नालालजी तिवारी से मिला। उन्होंने कहा | म्युनिसिपल कोर्पोरेशन जाकर फार्म ले आओ और भर दो। फिर देखा जायेगा। हम तीन चार लड़के फार्म लाये।
फार्म का मूल्य था सिर्फ १ आना। फार्म भर दिया। हम सब लड़को में सिर्फ मेरा ही नंबर लगा। साधारण इन्टरव्यू हुआ। ४-१०-१९५६ को दो महिने की अवेजी (बदली) पर रायपुर हिन्दी स्कूल में अध्यापकके रूप में नियुक्ति हुई। उस समय कुल वेतन ७२ रू. प्रतिमाह मिलता था। इस नौकरी से सभी खुश थे। परिवार या यों कहें समाज खुश था कि उसका एक लड़का मास्टर जो बन गया था। मेरे ऊपर पढ़े-लिखे होने का लेबल लग गया। उस समय हिन्दी स्कूल में अध्यापक को पंडितजी कहा जाता था। अतः अब मैं पंडितजी हो गया था। ___जीवन की गाड़ी चलने लगी। अध्यापक हो ही गया। दो महिने पूर्ण होने से पूर्व ही प्रोबेशन पर नियुक्ति हो गई। स्कूल था बहेरामपुरा हिन्दी स्कूल। अति संक्षेप में यहाँ का भी परिचय देना उपयुक्त लगता है। रायपुर में कक्षा ७ तक की स्कूल थी। कक्षा ७ में लगभग १३ से १५ वर्ष की आयु के लड़के-लड़कियाँ होते। १४-१५ वर्ष की लड़की अर्थात् मुग्धावस्था। सीधी सरल। अध्यापक उनके लिए देवता के समान। सभी बच्चे अध्यापक से घुल-मिल जाने की होड़ सी लगाते। लड़कियाँ विशेष रूप से। फिर हम जैसे १८-१९ वर्ष के युवा अध्यापकों की
ओर उनका आकर्षण स्वाभाविक रहता। इससे हमारे हेड मास्टर श्री त्रिभुवनदास बिंदेश्वरीप्रसाद चौहान सदैव सतर्क रहते। बेचारे जासूसी भी करते और चेताते भी रहते। हम नये अध्यापक उन्हें मूर्ख भी बनाते रहते। प्राथमिक शाला के बड़े ही रसप्रद किस्से रहे। वेतन कुछ नहीं था पर साहबी पूरी थी। मास्टरी का यही सख बादशाह शाहजहाँ समझे थे तभी तो औरंगजेब की कैद में भी उन्होंने काम के प्रकार में मास्टरी ही चाही थी। __बहेरामपुरा में आचार्य थे श्री गुरूदयालजी यादव। सरल हितचिंतक। उनकी सरलता का दुरुपयोग भी लोग करते। वे नये अध्यापकों को आगे पढ़ने में सदैव मदद करते। कभी तो वे अध्यापकों के पीरिडय स्वयं लेते और उन्हें पढ़ने की सुविधा देते। मुझे भी ऐसी ही सुविधा देते रहे। मेरी मेट्रिक से बी.ए. की कहानी भी संघर्षों की कहानी रही है। मैं नागौरी चाल से प्रातः ६.३० बजे टिफिन लेकर साईकल से सैंट जेवियर्स कॉलेज जाता जो घर से कम से कम १० मील दूर था। मेरे साथ ही चाली में रहनेवाले श्री ब्रह्मानंद त्रिपाठी जाते। लगभग ५० मिनिट साईकल चलाते और ठीक ७.१५ पर कॉलेज पहुँचते। यद्यपि उन दिनों ट्राफिक बहुत कम था। स्कुटर इक्केदुक्के थे। कार तो गिने चुने सेठों के ही पास थी। अतः रास्ते भीड़-भाड़ वाले नहीं थे। वहाँ से ९.३० बजे निकलकर काँकरिया के पास फुटबाल ग्राउन्ड के पीछे जो बगीचा बन रहा था वहाँ बैठकर टिफिन का खाना खाते
और बेहरामपुरा हिन्दी स्कूल में पहुँच जाते। वहाँ पाँच बजे तक नौकरी करते फिर जगदीश मंदिर में एक ट्यूशन करते। शाम ७ बजे तक घर आ पाते। यहाँ पाँच-छह लड़के ट्यूशन को आते। खाना खाकर उन्हें पढ़ाते एवं रात्रि को बिजली के खंभे के नीचे बैठकर पढ़ाई करते। इसी प्राथमिक शाला में नौकरी करने के दौरान एक धुन सवार हुई कि क्यों न पुस्तकों और स्टेशनरी का व्यापार किया जाय। सो चाली के ही बाहर के वरंडे में पार्टीसन करके स्टेशनरी व पस्तकों की दकान की। दकान ठीकठाक चली पर नौकरी के कारण दुकान पर अच्छी तरह ध्यान न दे सका। और आखिर घाटा उठाकर उसे बंद कर देना पड़ा। ___ अध्यापक की इस नौकरी में पैसा तो कम मिलता था। पर रोब झाड़ना अच्छा लगता था। रही बात पढ़ाने की सो वह तो चलता ही रहता था। समस्या थी बच्चों को पढ़ाने के साथ स्वयं पढ़ने की। इस कारण कई बार बच्चों के साथ पूर्ण न्याय नहीं हो पाता था। मैं अधिकांशतः कक्षा ३ का अध्यापक होना पसंद करता था। क्योंकि बच्चे थोड़े से बड़े होते थे। लेखनकार्य कम होता था और जिम्मेदारी भी कम होती थी। हमारे हेडमास्टर जानते थे कि ।