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स्मृतियों के वातायनश
की पूरी सेवा ही की है। मैं निरंतर पढ़ाई में आगे बढ़ रहा था। बी. ए. कर चुका था। एम.ए. कर रहा था। नौकरी
उन्नति हो रही थी, कुछ नई हवा भी लग रही थी, जिससे कभी कभी मेरे मनमें कुविचार आते कि जल्दी विवाह न हुआ होता, बी.ए. के बाद होता तो अपनी पसंद की खूबसूरत लड़की, भरीपूरी ससुराल व सबकुछ अच्छा मिलता। यह हीन भावना कभी-कभी मुझमें वितृष्णा भरती और उसकी सजा जैसे पत्नी ही पाती ।
विवाह के पाँच वर्ष तक संतान न हो ऐसा मेरा संकल्प था। क्योंकि छोटी उम्र में विवाह, संतान यह सब प्रगति के अवरोधक होते हैं। पर घर में दूसरे तीसरे वर्ष से ही संतान क्यों नहीं होती इसकी चिंता और दवा शुरू हो गई। खैर ! १९६१ में प्रथम पुत्र का जन्म हुआ । १९६४ में द्वितीय पुत्र का एवं १९६५ में पुत्री का जन्म हुआ। १९६७ में पुनः पुत्र का जन्म हुआ। जो विकलांग था और थोड़े ही दिनो में गुजर गया। इस पुत्र के जन्म होते ही मैंने अपने परिवार और सासूजी के घोर विरोध के बावजूद पत्नी का ऑपरेशन करवा दिया। इस समय भी वे तटस्थ ही थीं। ऑपरेशन कराओ तो भी राज़ी न कराओ तो भी राज़ी । उनका पूरा जीवन मेरे ही सुख की कामना व कर्तव्य में बीता।
नौकरी के सिलसिले में दो वर्ष अमरेली अकेला ही रहा १९६५ में राजकोट व १९६६ में सूरत पत्नी को अवश्य ले गया। बच्चे भी साथ थे। पर मैं उनकी अच्छी परवरिश नहीं कर पा रहा था। आर्थिक तंगी के कारण तथा छोटे भाई महेन्द्र को उज्जैन में डाक्टरी पढ़ाने के खर्च के कारण बच्चों को वह कोई सुविधा नहीं दे सका जो उन्हें बचपन में मिलनी चाहिए। मेरे कड़क, रुक्ष्य स्वभाव के कारण बच्चे कभी खुलकर वह सब नहीं माँग सके जो उन्हें जिद्द करके माँगना चाहिए था। उन्हें बस माँ का वात्सल्य ही सर्वाधिक मिला।
मेरे पूरे जीवन में सही अर्थों में पत्नी ही जीवनसंगिनी रही । यद्यपि उनकी पढ़ाई कम थी पर व्यवहार ज्ञान श्रेष्ठ था। जीवन के विवाह के ५१ वर्ष अर्धशताब्दी निकल गई। शायद परिवार की चिंता, मेरे स्वभाव की कटुता एवं पितृपक्ष की ओर से अवहेलना ने उन्हें डायबीटीस का मरीज़ बना दिया। पर इस बिमारी को भी वे सहजता से ! ती रहीं। दवा खाती रहीं । पर घर कार्य में कभी कोई कोताही नहीं की । स्वयं दवा खाने में व मुझे नियमित दवा देने में कभी भी भूल नहीं की। मैंने सन १९८१ में रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन कराया था तब से आजतक दवा देती हैं और सेवा करती हैं। वे डायबीटीस के साथ उच्च रक्तचाप एवं हृदय की बीमारी से पीड़ित हैं पर अपनी तबीयत से अधिक मेरा ध्यान रखती हैं। पिछले वर्ष हृदयरोग का आक्रमण हुआ । एन्जोयोग्राफी के पश्चात दो ! स्टेन डाले गये । पुनः हृदयरोग का आक्रमण हुआ पर सभीकुछ शांति से सहन किया । आजभी पूरी निष्ठा से ! जितना बनता है उतना काम करती हैं। इस सब आंतरिक शक्ति का कारण उनकी भगवत भक्ति, धर्म में श्रद्धा, बच्चों का प्यार, बहुओं का सद्भाव ही है।
यूँ कह सकता हूँ कि आज मैं जिस मुकाम पर पहुँचा हुँ उसमें मेरे श्रम, कर्म, भाग्य के साथ उनका सर्वाधिक व्यक्तिगत समर्पण महत्वपूर्ण है । वे दीपक की लौ की तरह जलती रहीं, जलन सहती रहीं पर मुझे ! प्रकाश देती रहीं । मैं आज सोचता हूँ कि मैं उन्हें वह स्नेह नहीं दे पाया जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। पर उन्होंने मुझे वह सबकुछ भरपूर रूप से दिया । आज मेरे जीवन की संध्या में भी उनके स्नेह और प्रेम की लालिमा ही बिखरी है।
ਕਹੇ
जैसाकि मैंने उल्लेख किया मेरे दो लड़के एवं एक लड़की जीवित हैं। प्रारंभ में कुछ दिन बच्चे मेरे साथ रहे। सन् १९६७ में जब मैं सूरत था, बच्चे मेरे साथ थे। एकबार मेरे पिताजी सूरत आये। जब मैं कॉलेज से लौटा तो देखा दोनों बच्चे उनके साथ अहमदाबाद जाने को तैयार थे। मुझे आश्चर्य था....... . बच्चे डर रहे थे कि कहीं