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शेखरचंद्र जैन
या स्वेच्छा मृत्यु में साधक समस्त संसार, परिवार और देह से भी निर्मोही होकर समस्त कषाय भावों को; ऐषणाओं को, इच्छाओं को स्वतः त्यागकर सल्लेखना धारण करता है । उसका उद्देश्य आत्मोन्नति होता है । वह इस भेद विज्ञान को जान लेता है कि देह और आत्मा भिन्न हैं । मुक्ति के लिए आत्मा का उन्नयन आवश्यक है । पुद्गल शरीर जो भोगविलास से पोषा गया था उसने तो उल्टे आत्मा को बंधन में जकड दिया था । अतः वह शरीर के भागों से आत्मा को संयम की ओर मोड़ता है । संयम की उत्कृष्टता का प्रतीक ही सल्लेखना है ।
दूसरी ओर आत्महत्या पूर्ण कषायों की तीव्रता का परिणाम होता है । इसमें क्रोध की बहुलता, निराशा, उपलब्धि की व्यवस्था, भय आदि प्रधानतया रहते हैं । मृत्यु का भय इसमें प्रमुख होता है, और वह भय व्यक्ति को मृत्यु की और उन्मुख करता है । यथा बिमारी से थका, कर्ज में डूबने पर, उगाही के भय से, गुण्डों के आतंक से, भूखमरी होने पर, संघर्ष होने पर जब व्यक्ति निराशा में डूब जाता है तब वह क्लेशयुक्त हो जाता है और उसी क्लेश में वह जीवन का अंत आत्महत्या के रूप में करता है। इसी प्रकार अत्यंत क्रोध के कारण व्यक्ति विवेक को खो देता है और उसी में या तो आत्महत्या कर लेता है या दूसरे की हत्या भी कर लेता है । इसी तथ्य को सर्वार्थसिद्धिकार, राजवार्तिककार सभीने व्यक्त करते हुए कहा है कि “सल्लेखना में प्रमाद का अभाव होता है । प्रमत्त योग से प्राणों का वध करना हिंसा है, यह हम जानते हैं । परंतु इस मरण में प्रमाद नहीं है क्योंकि, इसमें रागादिक भाव नहीं पाये जाते। राग-द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है वह आत्महत्या है, परंतु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादि तो है नहीं, इसलिए इसे आत्मघात का दोष प्राप्त नहीं होता है । क्योंकि कहा जाता है कि रागादि का न होना ही अहिंसा है ।" एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि सल्लेखना आत्मभावना, आत्मा के प्रति श्रद्धा से ही की जाती है । जबरदस्ती नहीं कराई जा सकती ।
इस उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि सल्लेखना में स्वयं की शक्ति और आत्मप्रेरणा का महत्त्वपूर्ण उपयोग होता है । जिसमें किसी बाह्य दबाव या जबरदस्ती नहीं की जाती है । जहाँ जबरदस्ती और विकृतियाँ हैं वहाँ हत्या होती है । जैनदर्शन तो इस स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म की ओर बढ़ने
का मार्ग प्रशस्त करता है । इसीलिए वहाँ कथन है कि “संयम के विनाश के भय से श्वासोच्छ्वास का विरोध करनेवाले को सल्लेखना प्राप्त नहीं होती । यहाँ भाव इतना ही है कि श्वास रोककर मरने में भय मूल स्थान में है, और भय होने से वह मरण यद्यपि स्वेच्छा से है परंतु सल्लेखना नहीं है, आत्महत्या है।" इसीलिए बाह्य सल्लेखना से अधिक आंतरिक सल्लेखना महत्त्वपूर्ण मानी गई है । स्पष्ट यह है कि जब अंतर की सल्लेखना सधती है तो बाह्य की सल्लेखना तो स्वयं सध जाती है । इसीलिए कहा गया है कि 'अनेक प्रकार से शरीर की सल्लेखना विधि करते समय क्षपक एक क्षण के लिए भी परिणामों की विशुद्धि को न छोड़े । कषाय से क्लुषित मन में परिणामों की विशुद्धि नहीं होती है, और परिणामों की विशुद्धि बिना किया गया तप ढोंग है । जो लोग बाह्य रूप से तो तप कर रहे हों लेकिन अंतर में रागद्वेषादिक रूप भावपरिग्रह रहें तो परिणामों की संक्लेशता के कारण भवभ्रमण नहीं छूटता है और जिससे भवभ्रमण नहीं छूटता है वह सल्लेखना नहीं हो सकती ।'