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सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में कषाय विजय का मनोवैज्ञानिक महत्त्व
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सल्लेखना के योग्य समय :
सल्लेखना के लिए चातुर्मास से हेमंत ऋतु के समय को उत्तम माना गया है । हम ऊपर सल्लेखना क्यों धारण करना इसकी चर्चा कर चुके हैं । इसी परिप्रेक्ष्य में साधु और गृहस्थों के लिए यह भी कहा गया है कि कोई व्यक्ति जीवन में योग्य समय पर अथवा योग्य परिस्थिति में उसे धारण न कर सके लेकिन यदि अंतिम समय में भी उसे धारण कर ले तो उसे अच्छा फल प्राप्त हो सकता है। उदाहरण - “जैसे कोई अंधा व्यक्ति किसी खंभे से टकरा जाय और उस टकराहट से किसी निमित्त से उसे दृष्टि प्राप्त हो जाय उसी तरह अंतिम समय में यदि शरीर का मोह और कषायों से मुक्ति के भाव जाग्रत हो जायें तो रत्नत्रय रूपी दृष्टि प्राप्त हो जाती है ।” सागारधर्मामृत में कहा है, 'चिरकाल से आराधक धर्म यदि मृत्यु के समय छोड़ दें और उसकी विराधना की जाय तो वह निष्फल हो जाता है और जीवनभर आराधना न की हो और मरते समय उस धर्म की आराधना की जाय तो चिरकाल के इकट्ठे हुए पापकर्म का भी नाश हो जाता है।'
___ यद्यपि एकाएक इस प्रकार की सल्लेखना लेना बड़ा कठिन काम है इसलिए आचार्यों ने उसको क्रमश: धारण करते हुए आगे बढ़ने का भी विधिविधान दिया है । आचार्य कहते हैं कि “भेद-विज्ञान की दृष्टि से विकास से व्यक्ति को पूरे जीवन इसका अभ्यास करना चाहिए, अर्थात् संयम की धारणा, कषायों की मंदता, भोजन पर संयम, देह की क्षीणता का अभ्यास करते रहना चाहिए जिससे अंतिम समय कायक्लेश या मनोक्लेश नहीं होता है । और यह क्लेशमुक्त मृत्यु ही मरण का सौंदर्य बन जाता है । साधु और निर्मोही गृहस्थ क्रमश: संयम में आरूढ़ होकर उसे उत्तरोत्तर दृढ़ करता है । साधक विचार करता है कि यह सल्लेखना ही मेरे धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले चलने में समर्थ है । निरंतर यह भावना होनी चाहिए - 'मैं मृत्यु के समय नियत शास्त्रोक्त विधि से समाधि मरण करूँगा।' इस तरह भा
करने से मरण पूर्व ही सल्लेखनाव्रत धारण करना चाहिए । यदि साधनाकाल में जीवन में कोई विराधना हुई हो तो भी मरण काल में भी वह रत्नमय रूप में परणत हो जाती है और निरंतर अभ्यास ही अंतिम समय में उत्तम परिणाम प्रदान करते हैं । सल्लेखना धारण से उपलब्धि :
सल्लेखना के परिणामों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि “सल्लेखना से मरण प्राप्त करनेवाला स्वर्ग के सुख भोगकर वहाँ से गमन कर, मनुष्यजन्म धारण करके संपूर्ण रिद्धियों को प्राप्त करता है । ऐसा जीव ही जिनधर्म अर्थात् मुनिपद के लिए योग्य बनता है । वह शुक्ल लेश्या की प्राप्ति करके कर्मरूपी कवच को तोड़कर शुक्ल ध्यान में पहुँचकर संसार से मुक्त हो जाता है । जिसने धर्मरूपी अमृत का पान किया है ऐसा सल्लेखनाधारी जीव समस्त प्रकार के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर अपार दुस्तर
और उत्कृष्ट उदयवाले मोक्षरूपी सुख के समुद्र का क्षीर जल का पान करता है । गृहस्थ भी धर्म का पालन करते हुए समाधि मरण प्राप्त करे तो उसे देव पर्याय प्राप्त होती है और वह भी वहाँ से मनुष्य भव धारण कर, संयम धारण कर मुक्ति पामता है । समाधि मरण धारण करनेवाला जीव अनेक भवों को धारण करने के कष्ट से बचता है और अधिक से अधिक सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।" इसी प्रकार के भाव भगवती आराधना में किये गये हैं । वे कहते हैं - "स्वर्ग में अनुत्तर भोग