________________
सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में कषाय विजय का मनोवैज्ञानिक महत्त्व
269
दूर न हो तो जिससे अपने गुणों का नाशन हो इस प्रकार प्रयत्न करता है । इसलिए इससे आत्मघात का दोष भी नहीं लगता । ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि दुर्भिक्ष आदि के उपस्थित होने से धर्म के अर्थ शरीर का त्याग करना सल्लेखना धारण करना है । साधक इसलिए भी सल्लेखना धारण करता है कि वह बहिरंग और अंतरंग के परिग्रह को त्याग करता है ।"
जैनदर्शन ही इस तथ्य को पुष्ट करता है कि व्यक्ति इस देह के प्रति ममत्व को त्याग दै, क्योंकि देह के सुख के लिए ही समस्त राग-द्वेष पनपते हैं । उन्हीं से प्रेरित होकर व्यक्ति अनेक अकरणीय कार्य करता है । इन सबसे बचने के लिए जब व्यक्ति बाह्य जगत से अंतर जगत में प्रवेश करता है तब वह इस शरीर के प्रति निर्मोही होकर देह त्याग का विचार करता है । इसीलिए भगवती आराधना में सल्लेखना क्यों धारण की जाय इसका उल्लेख करते हुए आचार्य कहते हैं, 'महाप्रयत्न से चिकित्सा करने योग्य ऐसा कोई दुरुत्तर होने पर, श्रामण्य की हानि करनेवाली अतिशय वृद्धावस्था आने पर अथवा नि:प्रतिकार देव मनुष्य व त्रियंच कृत उपसर्ग आ पड़ने पर या अनुकूल शत्रु जब चारित्र का नाश करने को उद्यत हो जाये, भयंकर दुष्काल आ पड़ने पर, हिंसक पशुओं से पूर्ण भयानक वन में दिशा भूल जाने पर, आँख-कान-कान, जंघा, बल अत्यंत क्षीण हो जाये और जीवन का कोई मार्ग न रहे उस समय मुनि या गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यान अर्थात् शरीर त्याग करने के योग्य समझे जाते हैं या यही सल्लेखना धारण करने का कारण होता है ।' इसी संदर्भ में सागार धर्मामृत में भी ऐसे ही कुछ भाव व्यक्त करते हुए कहा गया है - "स्वकाल पाक द्वारा अथवा उपसर्ग द्वारा निश्चित रूप से आयु का क्षय सन्मुख होने पर यथाविधि रूप से संन्यास मरण धारकर सकल क्रियाओं को सफल करना चाहिए । जिनके होने पर शरीर ठहर नहीं सकता । ऐसे सुनिश्चित देहादि विकारों के होने पर अथवा उसके कारण उपस्थित हो जाने पर अथवा आयु का क्षय निश्चित हो जाने पर निश्चय से आराधनाओं के चितवन करने में मग्न होता है उससे मोक्ष दूर नहीं होता ।”
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि उपर्युक्त विषम परिस्थितियों के होने पर भी जो मुनि या श्रावक अपने परिणामों को संक्लेषित नहीं करता है, उल्टे यह सोचता है कि देह नश्वर है इन आपत्तिओं के समय मुझे देह से ममत्व त्याग कर आत्मा का ही रक्षण करना है वह समाधि मरण को ही महत्त्व देता है । अन्यथा ऐसे विपरीत संयोगों में यदि व्यक्ति मात्र देह की चिंता करेगा तो वह भयभीत ही होगा । भय से ही उसकी मृत्यु होगी जो देह के जाने के बाद भी कुगति को ही प्राप्त करेगा । आचार्यों का निर्देश इतना ही है कि व्यक्ति को अंतिम समय का आभास होने पर घबड़ाना नहीं चाहिए, भयभीत नहीं होना चाहिए, आर्तध्यान में नहीं जाना जाहिए, अपितु उसे उस समय देहातीत बनकर सदभावनाओं से शुभ परिणामों से मृत्यु का वरण करना चाहिए । सल्लेखना आत्महत्या नहीं है :
___ मैंने अपने इस आलेख के प्रारंभ में ही थोड़ा सा निर्देश किया है कि जो लोग सल्लेखना के महत्त्व, उसकी भावना को समझ नहीं पाये उन्होंने सल्लेखना को आत्महत्या तक कह दिया । हम जब आत्महत्या के भाव को समझते हैं तब हम स्पष्ट जान लेते हैं कि सल्लेखना आत्महत्या नहीं है । हमने ऊपर सल्लेखना की जो व्याख्या, आवश्यकता आदि की चर्चा की है उसमें यह स्पष्ट किया है कि सल्लेखना