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दयानन्द भार्गव
अर्थात् वेद एक अपेक्षा से सार्थक है किन्तु दूसरी एक ऐसी अपेक्षा भी है जहाँ वेद की गति नहीं है। वह क्षेत्र पराविद्या का है । इसी बात को गीता में ‘त्रैगुण्यविषया वेदाः नैस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' (२.४५) कहकर प्रकट किया गया है ।
यह तो एक अपेक्षा से वेद की सीमा हुई, दूसरी अपेक्षा से वेद के प्रशंसापरक वाक्य भी गीता में ही उपलब्ध हो जायेंगे - प्रणवः सर्ववेदेषु (७.९), वेदानां सामवेदोऽस्मि (१०.२२) तथा वेदैश्च सर्वै रहमेव वैद्यः (१५.१५) इत्यादि । निष्कर्ष यह हुआ कि जहाँ वेद की सीमा बतायी गयी है वहाँ 'वेदवाद' शब्द का प्रयोग है किन्तु जहाँ 'वेद' की प्रशंसा की गयी है वहाँ 'वेदवाद' के स्थान पर केवल 'वेद' शब्द . का प्रयोग है । ___ इस आधार मैं कहना चाहता हूँ कि जहाँ तक अनेकान्तवाद का प्रश्न है, वह एक वाद है, एक दर्शन है, एक दृष्टि है । उस दर्शन का हम आज जैनदर्शन के नाम से जानते हैं । स्वाभाविक है कि यदि जैनदर्शन एक दर्शन है तो वेदान्त, बौद्ध आदि अन्य दर्शन भी हैं जिसका जैनदर्शन से मतभेद है। . अतः वे दर्शन अनेकान्तवाद को स्वीकार नहीं करेंगे । यदि वे भी अनेकान्तवाद को स्वीकार कर लें तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा, वे तो जैनदर्शन में ही विलीन हो जायेंगे । अतः अनेकान्तवाद की स्वीकार्यता सीमित ही है । वह अधिक से अधिक वस्तुवादी दर्शनों (Realist Systems) को स्वीकार हो सकता है, जैसा कि पूर्व मीमांसा को स्वीकार है भी किन्तु प्रत्ययवादी (Idealist Systems) दर्शन उसे स्वीकार नहीं कर सकते जैसा कि वेदान्त और बौद्ध उसे स्वीकार नहीं करते हैं । यही अनेकान्तवाद की सीमा है; वह वस्तुवादियों को स्वीकार्य है, प्रत्ययवादियों को स्वीकार्य नहीं है ।
किन्तु यदि अनेकान्त को एक वाद बना कर उसे विवाद का विषय न बनायें, (तुलनीय गीता (१०.३२) वादो विवदतामहम्) तो अनेकान्त की स्वीकार्यता सर्वव्यापक हो सकती है । अत: हम 'अनेकान्तवाद' पर विचार न करके प्रस्तुत पत्र में यह विचार करेंगे कि 'अनेकान्त' की सर्वव्यापकता तथा सर्वदर्शन स्वीकार्यता सीमित हो सकती है । वाद का स्वरूप ही ऐसा है कि वह एकपक्षीय ही होता है। वेदान्त और अनेकान्त -
२. 'नैकस्मिन्नसम्भवात्' (ब्रह्मसूत्र) की व्याख्या करते समय आचार्य शंकर ने अनेकान्तवाद का खण्डन किया है । उनका कहना है कि एक में परस्पर विरोधी दो धर्म नहीं रह सकते । अतः अनेकान्तवाद समीचीन नहीं है । इस पर अनेक जैन तथा जैनेतर विद्वानों का कहना है कि आचार्य शंकर अनेकान्तवाद को ठीक से समझे नहीं । मेरा मानना है कि आचार्य शंकर ने अनेकान्तवाद को ठीक से समझकर ही उसका खण्डन किया है । वे अद्वैतवादी हैं । उनके अद्वैतवाद का आधार निरपेक्षता है जबकि अनेकान्तवाद का आधार सापेक्षता है; सापेक्षता सदा अनेकों में हो सकती है, एक में तो निरपेक्षता ही होती है । जब श्रुतिका घोष है कि 'नेह नानास्ति किंचन' तो इस श्रुतिका अनेकान्तवाद से कैसे मेल हो सकता है ? अतः अद्वैतवादी शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद को समझकर ही उसका खण्डन किया है; यह कहना ठीक नहीं है कि आचार्य शंकर अनेकान्तवाद को समझे नहीं थे ।
आगम-प्रमाण को मानने वाले किसी भी ऐसे तर्क को स्वीकार नहीं कर सकते थे जो तर्क आगम के विरुद्ध जाये । शंकराचार्य की यही स्थिति है । वे श्रति के अद्वैतवादी मानते थे और अनेकान्तवाद