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अनेकान्त की व्यापकता
अनेकान्त और अनेकान्तवाद -
१. सर्व प्रथम मैं अनेकान्त और अनेकान्तवाद में अन्तर करना चाहता हूँ । मेरा ऐसा करने का आधार श्रीमद् भगवद् गीता है जिस में वेद तथा वेदवाद शब्दों का प्रयोग दो भिन्न अर्थों में किया गया है । श्रीकृष्ण कहते हैं
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः वेदवादरताः पार्थ ! नान्यदस्तीति वादिनः ।। कामात्मनः जन्मकर्मफलप्रदाम् क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ।। भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया पहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।। स्पष्ट है कि यहाँ 'वेदवाद रत' लोगों की यह कहकर निन्दा की गयी है कि वे यह कहा करते हैं कि 'नान्यदस्ति' .. ईसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है' यह जैन परम्परा के “एव' की ही व्याख्या है । जैनविद्या के अध्येताओं के बीच कहने की आवश्यकता नहीं है एव' एकान्त का सूचक है । जब कोई वैदिक धर्मावलम्बी यह कहता है कि वेद ही सब कुछ है, वेद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, तो वह समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता । यह वेद के प्रति एकान्त दृष्टि रखने का परिणाम है।
अभिप्राय यह है कि वेद अपराविद्या है । वह स्वर्ग की प्राप्ति का साधन तो है किन्तु यह कहना ठीक नहीं कि 'वेद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है'; क्योंकि यहि वेद अपराविद्या है तो उसके अतिरिक्त एक पराविद्या भी है जिसके द्वारा अक्षर तत्त्व का अधिगम होता है - अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ।
दयानन्द भार्गव